Kahani: एक समय की बात है, एक महात्मा नदी किनारे खड़े होकर प्रकृति को निहार रहे थे। कल-कल नदियों का बहना, ठण्डी-ठण्डी हवाएं और पेड़ के पत्तों का झूमना, बहुत ही आनंदमय वातावरण था। दूर कहीं पर्वत पर काले बादल छाए हुए थे, और मन को तृप्त कर देने वाला शांतमय वातावरण था।

तभी उन महात्मा के पास एक शिष्य आया, उस शिष्य के मन में कुछ सवाल था। वह जिज्ञाषा से भरा हुआ था, अपने जिज्ञासा को दूर करने के लिए शिष्य ने महात्मा से पूछा– गुरूजी, आप जिस प्रकार इस भूमि में चल सकतें हैं, उसी प्रकार इस पानी पर भी चल सकते हैं। परन्तु जब हम पानी पर चलने जाते है, तब डूबने लगते है, ऐसा क्यों गुरूजी। गुरूजी शिष्य से बोले कि जिसके हृदय में श्रद्धा, निष्ठा है और अपने गुरु या पूज्य के प्रति विश्वास है, वह एक नाव के समान इस पानी पर चल सकता है, वह डूबेगा नहीं।

गुरूजी की इन बातों को सुनकर शिष्य बोला- गुरूजी, मैंने जबसे आपको देखा है, तबसे मेरे दिल में आपके लिए श्रद्धा है। मुझे भी पूरा विश्वास है, और आप ही की तरह मैं भी आस्थापूर्ण हूँ। तब गुरूजी बोले– मेरे साथ आओ शिष्य और हम दोनों मिलकर इस पानी पर चलते हैं। गुरूजी पानी पर चलने लगें, पीछे-पीछे शिष्य भी पानी पर चलने लगा। कुछ दूर चले ही थे की अचानक एक लहर उठी, गुरूजी उस लहर पर चलने लगे, परन्तु शिष्य उस लहर को देख घबरा गया और छटपटाते हुए पानी में डूबने लगा, उसने चिल्लाया गुरूजी-गुरूजी बचाओ।

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गुरूजी ने उसे बचाया फिर उससे पूछा कि शिष्य क्या हुआ शिष्य भय से बोला, गुरूजी जब मैंने लहरों को देखा तो ऐसा लगा मानो वह मुझे निगल जायेगा और मैं पूरी तरह डर गया। गुरूजी बोले– अफसोस मेरे बच्चे, तुमने लहरों को तो देखा, मगर लहरों के उस स्वामी को नहीं देखा, जो हमेशा मदद के लिए तैयार रहता है।

सार: दोस्तों कहानी का तात्पर्य बहुत ही साधारण है, कि हमें किसी चीज़ पर विश्वास करनी है तो पूरे दिल से करनी चाहिए। अगर कोई काम सही है हमारा दिल कहता है, यह सही है तो उस कार्य को करना ही चाहिए चाहे कितनी भी मुश्किल क्यों न आये। देर सही पर मेहनत एक दिन जरूर रंग लाएगी।

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