Kahani: रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या, परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी, जिनके पाँच पुत्र थे। रुमण्वान, सुषेण, वसु, विश्वावसु तथा परशुराम। एक बार सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर मुनि को दिव्य ज्ञान से समस्त घटना ज्ञात हो गयी। उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ। जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को जड़बुद्ध होने का शाप दिया। परशुराम ने तुरन्त पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाइयों को क्षमा कर देने के लिए कहा। जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह पद्म से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे।

पुराणों के अनुसार भगवान परशुराम को श्री हरि विष्णु के अवतार माना गया है। भगवान विष्णु का यह सबसे क्रूर अवतार था। शिव जी द्वारा प्राप्त परशु के कारण ही उनका नाम परशुराम पड़ा था। परशुराम महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका की संतान थे। परशुराम उनके सबसे छोटे कर लाडले पुत्र थे पांचों भाइयों में परशुराम ही सबसे तेजस्वी और न्याय पूर्ण योद्धा थे। धरती पर उनके जैसा योद्धा कोई नहीं था। परशुराम अपने माता-पिता के सबसे लाडले और आज्ञाकारी पुत्र होते हुए भी उन्होंने माता का सिर काट दिया था, आखिर उन्होंने ऐसा कठोर कदम क्यों लेना पड़ा ऐसा क्या कारण था जो उनकी माता के जीवन से भी बढ़कर था।

परशुराम के पिता जमदग्नि बड़े ज्ञानी और तपस्वी थे उन्हें सभी प्रकार की सिद्धियों का ज्ञान था। परशुराम अपने पिता की आज्ञाकारी पुत्र थे और पिताजी की हर आज्ञा को पत्थर की लकीर मान हर हाल में पूर्ण करते थे। एक बार की बात है ऋषि जमदग्नि के स्नान के लिए पत्नी रेणुका नदी में पानी लेने के लिए गई वही कुछ दूरी पर राजा चित्ररथ भी स्नान कर रहे थे। राजा चित्ररथ को देख वह काफी समय तक उन्हें ही स्नान करते देखती रही। उनका मन विचलित हो गया और भूल गई कि उन्हें अपने पति के लिए स्नान का पानी ले जाना था।

काफी समय हो गया महर्षि जमदग्नि पत्नी रेणुका की प्रतीक्षा में बैठे उनका इंतजार करते रहे। जब पत्नी रेणुका आश्रम पहुंची तो ऋषि जमदग्नि ने अपनी ध्यानशक्ति से उनके देर में आने का कारण ज्ञात करना चहा इससे उन्हें सब ज्ञात हो गया और महाऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी पर क्रोधित हो उठे। उसी समय उनके चारों पुत्र भी आश्रम आ गए थे। महर्षि जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को बारी-बारी से अपनी मां का वध करने को कहा पर किसी ने भी माँ के मोह वश ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

किसी ने भी पिता की आज्ञा को नहीं माना और सभी पीछे हट गए, क्योंकि हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार किसी भी स्त्री की हत्या को बहुत बड़ा पाप माना गया है और यही अपनी ही मां का वध करने की बात थी लेकिन पिता आज्ञा का विरोध करना भी एक बड़ा अपराध है। चारों पुत्र समझ नहीं पा रहे थे क्या करना उचित होगा। जब ऋषि के चारों पुत्रों ने उनकी आज्ञा को नहीं माना तो अपने चारों पुत्रों को चेतना बुद्धि और विचार नष्ट होने का शार्प दे दिया।

वहीं थोड़ी देर में परशुराम भी आश्रम आ गए। परशुराम को देख महर्षि जमदग्नि ने उन्हें अपनी मां की और अपने चारों भाइयों का वध करने का आदेश दिया। अपनी पिता की आज्ञा पाकर उन्होंने अपनी माता और चारों भाइयों का वध कर डाला। यह देख ऋषि जमदग्नि काफी प्रसन्न हुए और परशुराम से वर मांगने के लिए कहा। परशुराम जानते थे कि उनके पिता बहुत बड़े ज्ञानी हैं और सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हैं। उन्हें अपने पिता की बातों से पूर्ण से अवगत था कि वह अपने पिता के आदेश मानेंगे तो उनके पिताजी उन्हें मुंह मांगा वरदान देंगे। इसलिए उनके पिताजी जब उनसे वरदान मांगने को कहते हैं तो परशुराम ने अपनी मां का और अपने चारों भाइयों को पुनर्जीवित करने का वरदान मांगते है। इससे उनके पिता ने उनकी इच्छा मान माता रेणुका और चारों भाइयों को जीवित हो गए इस तरह परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा भी मानी और अपनी माता और भाइयों को जीवित भी करा लिया।

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परन्तु माता तो पुण्य जीवित हो गई पर उन पर अपनी मां हत्या का पाप चढ़ गया। इस पाप से मुक्ति पाने के लिए परशुराम एक पर्वत पर शिव आराधना करने के लिए चले गए। कई वर्षों की कठोर तपस्या से प्रसन्न शिवजी ने उनके समक्ष आ गए और उन्हें मृत्यु कुंडली के जल में स्नान करने के आदेश दिया तभी वह अपनी माता के बाप से मुक्त हो पाएंग परशुराम ने शिवजी कहे अनुसार ऐसा ही किया और अपने माता हत्या के पाप से मुक्ति प्राप्त की। यह मृत्यु गुंडे हो वर्तमान राजस्थान के चित्तौड़ जिले में है स्थित है इस स्थान को मेवाड़ के तीर्थ स्थल भी कहा जाता है। इस स्थान से कुछ दूरी पर एक पहाड़ी पर भगवान शिव जी का मंदिर जिसे परशुराम जी ने खुद अपने फरसों से काटकर बनाया था।

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