मेरे गाँव! जा रहा हूँ दूर-दिसावर
छाले से उपने थोथे धान की तरह
तेरी गोद में सिर रख नहीं रोऊँगा
जैसे नहीं रोए थे दादा
दादी के गहने गिरवी रखते बखत

जनवरी की सर्द रात में टहलता रहा
देखता रहा घरों की जगी हुईं लाइटें
पर कहाँ दिखी मुझे
चाँद में चरख़ा चलाती हुई बूढ़ी दादी
सुनता रहा दूर से आ रही
सत्संग की मीठी आवाज़
इस बीच न जानें कब चला गया था
बुढ़िया की टोकरी में चाँद
किसान के कंधों पर बैठकर
उग आया था सूरज धुंध को चीरता हुआ

किसानों के बच्चे खेतों के बीच
बनाएँगे भारत का मानचित्र
सँजोएँगे सरसों के फूल
धोरों पर लिखेंगे गड़रिए
अनकही प्रेम-कथा
गोधूलि बेला में लौट आएँगे सब
अपने आशियाने
जैसे रोज़ धोने पर लौट आती है
मज़दूर की बनियान में पसीने की सुगंध

गाँव को विदा कह देना आसान नहीं है
जैसे आसान नहीं है
रोते हुए बाबा के आँसू पोंछना
जैसे आसान नहीं है
बेरोज़गार का कविता करना, गीत गाना

– संदीप निर्भय

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