मेरी मां को
तस्वीर के लिए
मुस्कुराना नहीं आता

मैं जैसे ही खोलती हूं कैमरा
वो झेंपने लगती हैं
शर्माती हैं
आठवीं कक्षा की लड़की सी
दो तीन बार पल्लू ठीक करती हैं
परेड में खड़े सिपाहियों से भी ज़्यादा
सीधी कर लेती हैं कमर
और फिर आखिर में
एकदम जब खिंचने वाली होती है फोटू
कसकर भींच लेती हैं
अपने होंठ

मेरे दोस्त बताते हैं
मैं जब असहज होती हूं
ठीक वैसे ही होंठ भींच लेती हूं
बेसन की सब्ज़ी की तरह
ये मुझे सिखाया नहीं है उन्होंने
जाने कब बस सीख लिया मैंने

मैं देखती हूं
उनके बचपन की तस्वीरें
लगता है जैसे
मेरी ही हों
और इस तरह मेरे पास
दो-दो बचपन की तस्वीरें हैं
और मां के पास
एक भी नहीं

मैं देखती हूं
मुंबई के समंदर किनारे
छुट्टी के दिन
पिकनिक मनाते परिवार
मां, पिता और बच्चे
घोड़ा-गाड़ी की सवारी करते
चना ज़ोर गर्म चबाते
और लेते हुए खूब सारी सेल्फियां
फिर सोचती हूं
एक दिन
उन्हें भी लाऊंगी यहां
खूब घुमाऊंगी
नाव पर बैठाऊंगी
और खींचूंगी
एक खुश दिन की तस्वीर
जिसमें वो भी
बच्चों संग बच्ची सी लगेंगी

मुझे याद है
एक बार हम
पूर्णिमा के मेले में गए थे
ऊंचे झूलों
और बर्फ़ के गोलों के अलावा
एक कैमरामैन भी था वहां
हम सब एक साथ खड़े हुए थे
एक कतार में
खिंचवाने को एक
मेले वाली तस्वीर
जो कभी हमें मिल नहीं पाई
शायद उसमें वो हँसी थीं
शायद नहीं

फिर एक दिन मैंने ही खींच दी
मां की एक तस्वीर
उन्होंने भींच लिए थे होंठ
मुस्कुराई थीं
ऐसे जैसे झूठ हो
और नहीं देख रही थीं
कैमरे की तरफ़

वो तस्वीर मेरे कमरे की दीवार पर लगी है
जब भी आत्मविश्वास से थकने लगते हैं कंधे
जब भी बेबाक होने से
मन ऊबने लगता है
देख लेती हूं उसे

एक आठवीं कक्षा की लड़की
मुझसे कहती है
कभी कभी हो सकती हो
तुम भी असहज
कभी कभी
हार सकती हो
सब कुछ कर सकने वाले भी
कुछ कुछ नहीं कर पाते

जैसे मेरी मां
जिन्हें परमाणु जितना जटिल
हमारा घर चलाना आता है,
बस तस्वीर के लिए
मुस्कुराना बिल्कुल नहीं आता।

– दीक्षा चौधरी

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