Kahani: एक बार एक गुरुदेव अपने शिष्य को अहंकार के ऊपर एक शिक्षाप्रद कहानी सुना रहे थे। एक विशाल नदी जो की सदाबहार थी उसके दोनो तरफ दो सुन्दर नगर बसे हुए थे। नदी के उस पार महान और विशाल देव मन्दिर बना हुआ था। नदी के इधर एक राजा था, राजा को बड़ा अहंकार था, कुछ भी करता तो अहंकार का प्रदर्शन करता। वहाँ एक दास भी था, बहुत ही विनम्र और सज्जन। एक बार राजा और दास दोनो नदी के वहाँ गये, राजा ने उस पार बने देव मंदिर को देखने की इच्छा व्यक्त की।

दो नावें थी, रात का समय था, एक नाव मे राजा सवार हुआ, और दूसरी में दास सवार हुआ, दोनों नाव के बीच में बड़ी दूरी थी। राजा रात भर चप्पू चलाता रहा पर नदी के उस पार न पहुँच पाया। सूर्योदय हो गया तो राजा ने देखा की दास नदी के उसपार से इधर आ रहा है। दास आया और देव मन्दिर का गुणगान करने लगा। राजा ने कहा की तुम रातभर मन्दिर में थे। दास ने कहा की हाँ, और राजाजी क्या मनोहर देव प्रतिमा थी, पर आप क्यों नही आये। अरे मैंने तो रात भर चप्पू चलाया पर…

गुरुदेव ने शिष्य से पुछा वत्स बताओ की राजा रातभर चप्पू चलाता रहा पर फिर भी उस पार न पहुँचा? ऐसा क्यों हुआ? जब की उस पार पहुँचने में एक घंटे का समय ही बहुत है। शिष्य- हे नाथ, मैं तो आपका अबोध सेवक हूं, मैं क्या जानू आप ही बताने की कृपा करे देव। ऋषिवर- हे वत्स, राजा ने चप्पू तो रातभर चलाया पर उसने खूंटे से बँधी रस्सी को नही खोला। और इसी तरह लोग जिन्दगी भर चप्पू चलाते रहते है, पर जब तक अहंकार के खूंटे को उखाड़कर नहीं फेकेंगे आसक्ति की रस्सी को नही काटेंगे, तब तक नाव देव मंदिर तक नहीं पहुंचेगी।

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हे वत्स, जब तक जीव स्वयं को सामने रखेगा तब तक उसका भला नहीं हो पायेगा। ये न कहो किये मैंने किया, ये न कहो की ये मेरा है, ये कहो की जो कुछ भी है वो सद्गुरु और समर्थ सत्ता का है, मेरा कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है सब उसी का है। स्वयं को सामने मत रखो, समर्थ सत्ता को सामने रखो! और समर्थ सत्ता या तो सद्गुरु है या फिर इष्टदेव है। यदि नारायण के दरबार में राजा बनकर रहोगे तो काम नहीं चलेगा, वहाँ तो दास बनकर रहोगे, तभी कोई मतलब है। जो अहंकार से ग्रसित है, वो राजा बनकर चलता है, और जो दास बनकर चलता है वो सदा लाभ में ही रहता है। इसलिये नारायण के दरबार में राजा नहीं दास बनकर चलना।

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