Kahani: प्राचीन युग की बात है। तब प्रजा अधिकतर धर्म-परायण थी, फिर भी अधार्मिक तत्व किसी मात्रा में थे ही। अधिकांश व्यक्ति त्यागी, सेवापरायण एवं ईश्वरभक्त साधुजनों से सदुपदेश तथा सद्ज्ञान प्राप्त किया करते थे। एक संत थे। वे जनता को धार्मिक उपदेश दिया करते थे। किंतु उन्होंने यह पढ़ा था शास्त्रों में, “ज्ञानदान किसी प्रतिदान की आशा अथवा लाभ के बिना ही किया जाना चाहिए, अन्यथा उसकी महत्ता कम हो जाती है।” सो संत अपना निर्वाह टोपियाँ सींकर, बेचकर ही करते थे। नित्य के व्यय के पश्चात एक पैसे की बचत भी हो जाती थी, जिसे वे दान कर दिया करते थे।
उसी नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ संत का प्रवचन सुना करते थे तथा उनकी गतिविधियों को निकट से देखा करते थे। उन्होंने देखा कि साधु जी नित्य एक पैसे का दान करते हैं। उन्हें भी दान करने की प्रेरणा मिली और उन्होंने भी उस दिन से धर्मखाते में एक निश्चित मात्रा में धन निकालना प्रारंभ कर दिया। जब राशि पाँच सौ रुपये हो गई, तब वह उसे लेकर संत के पास पहुँचे। मैंने धर्मखाते से निकाली हुई यह राशि एकत्र की है। अब इसका क्या करूँ? संत ने सहजभाव से कहा, जिसे तुम दीन-हीन समझते हो, उसे दान कर दो।
सेठ जी गए। उन्होंने देखा कि दुबला-पतला, भूख से पीड़ित अंधा मनुष्य जा रहा है। उन्होंने उसे सौ रुपये देकर कहा, सूरदास जी! आप इन रुपये से भोजन, वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ ले लेना। अंधा आशीर्वाद देता हुआ चला गया, किंतु सेठ को न जाने क्या सूझा कि वे उसके पीछे-पीछे चले। उन्होंने देखा कि आगे जाकर उस अंधे ने उन रुपयों से खूब मांस खरीदकर खाया, शराब पी और जुए के अड्डे पर जाकर जुए के दाँव पर रुपये लगा दिए। नशा चढ़ा और वह सब रुपये हार गया, तब जुए के अड्डे वालों ने उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया।
सेठ जी को बड़ी ग्लानि हुई। एक क्षण के लिए दान और धर्म से विश्वास ही हट गया, पर फिर वह साधु के पास गए और उन्हें सब कुछ कह सुनाया। संत मन ही मन मुस्कराए और उसे अपना बचाया हुआ एक पैसा देकर कहा, आज इसे किसी आवश्यकता वाले को दे देना और कल अपनी बात का उत्तर ले जाना। सेठ ने आगे जाकर एक दीन-दरिद्र व्यक्ति को वह पैसा दे दिया और छिपकर उसके पीछे हो लिए। वह व्यक्ति थोड़ी दूर गया। उसने अपनी झोली में से एक चिड़िया निकालकर उड़ा दी। एक पैसे के चने खरीदे और उन्हें खाकर तृप्त होकर प्रसन्न होता हुआ आगे चला।
सेठ ने उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? तब वह व्यक्ति बोला, मैं कई दिन से भूखा था। कुछ न पाकर यह चिड़िया पकड़ लाया था कि भूनकर खा लूँगा, किंतु अब आपने एक पैसा दे दिया, तो अब जीव की हत्या क्यों करूँ? इतना अन्न मिल गया। क्या यह संतोष की बात नहीं? सेठ ने यह घटना भी संत को सुना दी और दोनों घटनाओं का अंतर पूछा।
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संत बोले, वत्स! महत्ता केवल देने भर की नहीं होती। हमने जो धन दान में दिया है, वह किन साधनों द्वारा प्राप्त किया है, इसकी भी भावना उस धन के साथ जुड़ जाती है। तुम्हारा अनीतिपूर्वक बिना परिश्रम के कमाया गया धन पाकर प्राप्तकर्त्ता ने सौ रुपये भी अनीति के कार्यों में लगाए। अतः तुम्हें उस उपयोगकर्त्ता के अनुरूप पाप ही लगेगा और मेरा एक पैसा परिश्रम से कमाया हुआ था, अतः जिसके पास गया, उसके द्वारा सद्बुद्धिपूर्वक ही व्यय किया गया। सेठ की समझ में तथ्य आ गया और उस दिन से ही उसने व्यापार पूरी ईमानदारी के साथ करना प्रारंभ कर दिया।
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