Basti News: इंसाफ के लिए हर किसी को कानून से उम्मीद होती है, लेकिन कानून किसी को कितना इंसाफ मिलता है, इसे वह बुजुर्ग बाखूबी समझता है, जिसकी पूरी जवानी कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने में गुजर गई। हक के लिए कानूनी लड़ाई लड़ना आसान नहीं होता, क्योंकि जिस इंसाफ के लिए लोग लड़ते हैं, उसे पाने के लिए भ्रष्टाचार की कई चौखट से गुजरना पड़ता है। भ्रष्टाचार की इसी दहलीज पर कई सच दफन हो जाते हैं, जिसका पता ही नहीं चलता। ऐसा ही सच 14 साल बाद उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद निवासी आरटीआई कार्यकर्ता सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी ने उजागर किया है। यह वह सच है, जिस मामले में आरटीआई कार्यकर्ता सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी को 24 दिन तक जेल जाना पड़ा था, वह पूरा मामला ही फर्जी था। एफआईआर से लेकर एफआईआर कराने वाले सभी फर्जी निकले, बावजूद इसके बस्ती पुलिस ने बिना किसी जांच पड़ताल के सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी को गिरफ्तार किया, बल्कि 24 दिनों तक सलाखों के पीछे भी रखा। कानून, पुलिस, कोर्ट इन सबके होने के बावजूद एक निर्दोष को 24 दिन जेल और 14 साल तक कड़ी लड़ाई के बाद पता चला कि जिस मामले में उसे जेल हुई वह पूरी तरह से फर्जी था।

इस पूरे फर्जीवाड़े का खुलासा आरटीआई के तहत मांगी जानकारी में सीएमओ कार्यालय ने किया है। सीएमओ कार्यालय में वे कर्मचारी नहीं मिले, जिन्होंने एफआईआर दर्ज कराई थी। मजे की बात यह है, जिन कर्मचारियों ने एफआईआर दर्ज कराई थी, उनकी तैनाती भी उस समय वहां नहीं थी। वहीं कार्यालय में वह पत्र भी नहीं मिला, जिसके जरिए एफआईआर लिखवाया गया था। इसी फर्जी मुकदमे के चलते आरटीआई कार्यकर्ता सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी को 24 दिन तक जेल में रहना पड़ा। यह मुकदमा जिला अस्पताल के सीएमएस ने 14 साल पहले लिखवाया था।

सीएमओ कार्यालय से मिली जानकारी को आधार बनाकर पीड़ित सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी बिना किसी प्रार्थना पत्र पर एफआईआर लिखे जाने और खुद जेल भेजे जाने को लेकर अपर मुख्य सचिव गृह, प्रमुख सचिव चिकित्सा, डीजीपी, कमिश्नर, डीआईजी, डीएम और एसपी को पत्र लिखकर संबंधित कर्मचारियों के विरुद्ध विधिक कार्रवाई करने की मांग की है।

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बिना एफआईआर के भेज दिया जेल

गौरतलब है कि यह अपने आप में पहला ऐसा मामला होगा, जो बिना किसी तहरीर के न सिर्फ एफआईआर दर्ज किया गया, बल्कि इंसाफ की लड़ाई लड़ने वाले आरटीआई कार्यकर्ता को जेल भेज दिया गया। इन्हीं खामियों के चलते कानून मजाक बनकर रह गया है। जिन लोगों की जिम्मेदारी होती है कि वह इंसाफ दिलाएं, वह चंद पैसों पर खुद के साथ-साथ कानून को सौदा कर लेते हैं। जिसका खामियाजा सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी जैसे लोगों को भुगतना पड़ता है। बता दें आरटीआई कार्यकर्ता को सच पता करने के लिए लगभग 14 साल लग गए। आरटीआई से मांगी गई जानकारी में बताया गया कि जिस तहरीर पर और जिसके हस्ताक्षर पर मुकदमा लिखा गया, वह तहरीर ही नहीं मिल रही है और जिन कर्मियों के हस्ताक्षर हुआ, उस समय उनकी तैनाती कहीं और थी। ऐसे में उच्च अधिकारियों को भेजे पत्र में सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी ने सवाल किया है कि एफआईआर दर्ज कराने में जिन तीन कर्मचारियों काशी प्रसाद, भागवत प्रसाद चौधरी और रघुनाथ वर्मा का नाम तहरीर में दिया गया था। सीएमओ कार्यालय के मुताबिक, उस वक्त इन कर्मचारियों की तैनाती वहां थी ही नहीं।

सुदृष्टि नरायन त्रिपाठी ने सवाल किया कि किसके कहने पर एफआईआर लिखा गया। 21 अगस्त, 2009 को मुख्य चिकित्साधिकारी, बस्ती के कार्यालय से तहरीर ही नहीं दिया गया, तो किस आधार पर मुकदमा लिखा गया। आरटीआई कार्यकता ने बस्ती प्रशासन पर मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न करने का आरोप लगाते हुए इंसाफ की गुहार लगाई है।

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