रोटियाँ, चटनी और कांदों के साथ माँ
थैले में रख देती है
दो जोड़ी कपड़ों में तह करके आशा
पश्चिम की ओर मुँह कर
करती है तिलक
लगाती है चावल
थमा देती है हाथ में दस का नोट
कलाई पर आशीर्वाद की मोली बाँधती हुई

आख़िरकार माँ जब दे रही होती है
मेरे मुँह में गुड़ की डली
तो कुछेक चावल उतरकर
आ बैठते हैं फिर से
ज़िद्दी बच्चे की तरह थाली में
रह जाते हैं फ़क़त
दो-तीन चावल तिलक से चिपके हुए।

– संदीप निर्भय

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