राघवेंद्र प्रसाद मिश्र

UP elections 2022: चुनाव नेताओं को बहुत कुछ सिखाता है और सबक भी देता है। इससे जो कुछ नहीं सीख पाते शायद उन्हीं को ही पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता कहा जाता है। यही कारण है कि पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता बार-बार उपेक्षित होने के बावजूद भी तन, मन, धन से पार्टी के लिए जुटे रहते हैं। हकीकत है कि पार्टियां कोई भी फैसला लेने से पहले ऐसे समर्थकों से राय लेना भी उचित नहीं समझतीं, क्योंकि उनको लगता है कि ये लोग कहीं नहीं जाने वाले हैं। कड़वा सच यह भी है कि जमीनी कार्यकर्ताओं के बदौलत राजनीतिक दल सत्ता तक पहुंच पाते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों के जमीनी कार्यकर्ता हर बार ​की तरह इस बार भी हाशिए पर आ गए हैं। सबसे बुरी स्थिति सपा से अलग हो प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाने वाले शिवपाल सिंह यादव (Shivpal Singh Yadav) से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं की है। भतीजे अखिलेश यादव को एकबार फिर से सत्ता का स्वाद चखाने की लालसा में शिवपाल सिंह यादव (Shivpal Singh Yadav) अपनी पार्टी, नेताओं और कार्यकर्ताओं को ताख पर रखकर सपा में वापसी कर ली है।

शिवपाल सिंह यादव (Shivpal Singh Yadav) की सपा में आने से उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का वजूद खतरे में आ गया है, क्योंकि अखिलेश यादव ने शिवपाल सिंह यादव (Shivpal Singh Yadav) को मात्र एक सीट जसवंत नगर देकर समझौता कर लिया है। जबकि सूत्रों की मानें तो शिवपाल अखिलेश यादव से 100 सीटें मांग रहे थे। लेकिन अब वह यह कहते नजर आ रहे हैं कि वह सपा को बचाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो नेता और कार्यकर्ता उनके साथ मिलकर उनकी पार्टी का प्रचार कर रहे थे। चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे थे, क्या वह बेकूफ थे। ऐसे में अब उनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा?

गौरतलब है कि वर्ष 2017 से पहले अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल यादव (Shivpal Singh Yadav) को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। चाचा-भतीजे में टकराव इतना बढ़ गया था कि दोनों एक-दूसरे को देखना तक नहीं पसंद कर रहे थे। शिवपाल सिंह यादव ने सपा से अपने साथ आए नेताओं और कार्यकर्ताओं को साथ लेकर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना ली थी। उनकी पार्टी ने वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ी, लेकिन कुछ खास नहीं कर पाई। शिवपाल की पार्टी 2017 के बाद से यूपी विधानसभा चुनाव 2022 की तैयारी कर रही थी। इसके लिए प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता प्रदेश में सियासी जमीन भी तैयार कर चुके थे। खुद शिवपाल सिंह यादव गत महीने रथ यात्रा निकाल कर पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे थे। लेकिन अचानक अखिलेश से मुलाकात के बाद उन्होंने अपनी सारी तैयारियों को हाशिए पर रखकर भतीजे को मुख्यमंत्री बनाने जुट गए हैं।

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शिवपाल के सपा को समर्थन करने के बाद उनकी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का राजनीतिक भविष्य पर खतरा मंडराने लगा है। क्योंकि अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल यादव को सिर्फ एक सीट वह भी सपा से देकर राजी कर लिया है। पांच साल से प्रगतिशील पार्टी के लिए पैसा और पसीना बहाने वाले नेताओं का राजनीतिक भविष्य परिवारवाद के चलते संकट में आ गया है। वह न तो प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के रहे और न ही समाजवादी पार्टी में उन्हें कोई जगह मिली। पार्टी से जुड़े नेताओं ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा कि शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी के थे, सो वह घर के थे चले गए, मगर हम लोगों को अंधकार में छोड़ गए।

राजनीतिक जानकारों की मानें तो प्रगतिशील समाजवादी पार्टी में बगावत की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। यह कभी भी भयानक रूप ले सकता है। पांच सालों से पार्टी के लिए पैसा और पसीना बहाने वाले नेता खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। ऐसे में उनके सामने बगावत के सिवाय और कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है। यह देखना दिलचस्पा होगा कि सपा प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को कैसे मैनेज करती है। सवाल यह भी है कि परिवारवाद के चलते जो शिवपाल यादव पार्टी के लिए जी जान से जुटे नेताओं और कार्यकर्ताओं के नहीं हुए, वह प्रदेश की जनता का कैसे हो सकते हैं?

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