Pauranik Katha: एक बार महर्षि नारद बैकुंठ की यात्रा पर जा रहे थे। नारद जी को रास्ते में एक औरत मिली-और बोली, मुनिवर! आप प्रायः भगवान नारायण से मिलने जाते हैं- मेरे घर कोई संतान नहीं है, आप प्रभु से पूछना- मेरे घर संतान कब होगी। नारद जी ने कहा ठीक है, पूछ लूँगा, इतना कह कर नारद जी नारायण नारायण कहते हुए यात्रा पर चल पड़े। बैकुंठ पहुँच कर श्री नारायण ने नारद जी से जब कुशलता पूछी- तो नारद जी बोले, जब मैं आ रहा था, तो रास्ते में एक औरत जिसके घर कोई संतान नहीं है, उसने मुझे-आपसे पूछने को कहा कि उसके घर पर संतान कब होगी।

नारायण बोले तुम उस औरत को जाकर बोल देना कि इस जन्म में उसके भाग्य में संतान का सुख नहीं है। नारद जी जब वापिस लौट रहे थे, तो वह औरत बड़ी बेसब्री से नारद जी की प्रतीक्षा कर रही थी। औरत ने नारद जी को देखते ही, उनसे से पूछा कि प्रभु नारायण ने मेरे प्रश्न का क्या उत्तर दिया। इस पर नारद जी ने कहा, प्रभु ने कहा है कि आपके घर इस जन्म में तो कोई संतान नहीं होगी। यह सुन कर औरत दहाड़े मार कर रोने लगी, नारदजी भी चलते बने। कुछ समय बीत गया। गाँव में एक बुजुर्ग सन्त मधुकरी के लिये आये और उन सन्त ने उसी औरत के घर के सामने खड़े हो कर मधुकरी के लिए आवाज लगायी।

सन्त की आवाज़ सुन कर वो बांझ औरत मधुकरी के लिये भोजन ले आई। भोजन पाकर सन्त ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया और जैसा उस सन्त ने कहा था, वैसा ही हुआ। कुछ समय पश्चात उस औरत के घर एक बेटा पैदा हुआ। उस औरत ने बेटे की खुशी में साधु संतों में भोजन बाँटा और ढोल बजवाये। कुछ वर्षों बाद जब नारद जी पुनः वहाँ से गुजरे तो वह औरत कहने लगी क्यों नारद जी! आप तो हर समय नारायण-नारायण करते रहते हैं। आपने तो कहा था कि मेरे घर इस जन्म में संतान ही नहीं होगी।

यह देखो मेरा राजकुमार बेटा, फिर उस औरत ने उस सन्त के बारे में भी बताया। नारद जी को इस बात का उत्तर चाहिए था कि यह कैसे हो गया। वह जल्दी-जल्दी नारायण धाम की ओर गए और प्रभु से ये बात कही कि आपने तो कहा था कि उस औरत के घर संतान नहीं होगी। क्या उस सन्त में आपसे भी ज्यादा शक्ति है। नारायण भगवान बोले, आज मेरा स्वास्थ कुछ ठीक नहीं है, मैं आपकी बात का उत्तर बाद में दूँगा, पहले आप मेरे लिए औषधि का प्रबंध कीजिए। नारद जी बोले, आज्ञा दीजिए प्रभु। श्री नारायण बोले, नारद जी आप भू-लोक जाइए और एक कटोरी रक्त लेकर आइये।

नारद जी कभी इधर कभी उधर घूमते रहे पर एक प्याला रक्त भी नहीं मिला। उल्टा लोग उपहास करते कि नारायण बीमार हैं, आखिर चलते चलते नारद जी किसी जंगल में पहुँचे। वहाँ पर वही सन्त मिले, जिसने उस औरत को बेटे का आशीर्वाद दिया था। वो सन्त नारद जी को पहचानते थे, उन्होंने कहा अरे देवर्षि जी, आप इस जंगल में इस समय क्या कर रहे हैं। इस पर नारद जी ने जवाब दिया, मुझे प्रभु ने किसी मनुष्य का रक्त लाने को कहा है। यह सुन कर सन्त खड़े हो गये और बोले कि प्रभु ने किसी मनुष्य का रक्त माँगा है। उसने कहा, आपके पास कोई छुरी या चाक़ू है। नारदजी ने कहा कि वह तो मैं साथ में लेकर ही घूम रहा हूँ। तुरन्त उस सन्त ने अपने शरीर से एक प्याला रक्त दे दिया। नारद जी वह रक्त लेकर नारायण जी के पास पहुँचे और कहा आपके लिए मैं औषधि ले आया हूँ।

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नारायण ने कहा, यही आपके सवाल का उत्तर भी है। जिस सन्त ने मेरे लिए एक प्याला रक्त मांगने पर अपने शरीर से इतना रक्त भेजकर मुझे अपना ऋणी बना लिया है, जो मुझसे इतना प्रेम करता हो, क्या उस सन्त के आशीर्वाद देने पर, मैं किसी को बेटा भी नहीं दे सकता? उस बांझ औरत के लिए प्रार्थना आप भी तो कर सकते थे, पर आपने ऐसा नहीं किया। रक्त तो आपके शरीर में भी था, पर आपने नहीं दिया। मनुष्य का भाग्य केवल प्रारब्ध से निर्मित नहीं होता, अपितु सद्कर्म और आशीर्वाद से भी प्रभावित होता है।

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