Pauranik Katha: पं. श्रीशान्तनु बिहारी द्विवेदी (स्वामी श्री अखण्डानन्द सरस्वती) जब लौकिक कार्य वश घर से रवाना हो रहे थे, तो उनकी माता जी ने उन्हें तीन शिक्षाएं दीं। पहली- बासी खाना, दूसरी- पलंग पर सोना तथा तीसरी- किले में रहना। अखण्डानन्दजी महाराज इनका तात्पर्य समझे नहीं और अपनी माँ से पूछा। मां ने समझाया बेटा, बासी खाने का अर्थ है- इतना अर्थोपार्जन करना कि दूसरे दिन की चिन्ता न रहे। गृहस्थ को हमेशा कल के लिए बचाकर रखना चाहिये, अन्यथा वह लोगों की दृष्टि में हेय हो जाता है, उसे बहुत कष्ट उठाना पड़ता है।
पलंग पर सोने का अर्थ है- खूब परिश्रम करना। परिश्रम करने से शरीर स्वस्थ रहता है। दिन भर अगर परिश्रम होता है तो सोते ही ऐसी नींद आती है- जैसे सुन्दर पलंग पर सोने से। यदि परिश्रम न किया जाय तो पलंग भी काटने को दौड़ता है। करवट बदलते- बदलते रात बीत जाती है। अतः सर्वदा शारीरिक श्रम भी करते रहना चाहिये। शारीरिक श्रम से ही नींद अच्छी आती है। किले में रहने का अर्थ है- सदा सन्त के आश्रय में रहना। किले से भी अधिक सुरक्षा उसे सन्त के सान्निध्य में रहने से प्राप्त हो जाती है। जीवन की सफलता सत्संग में ही है, बिना सत्संग के मनुष्य या तो पशुवत् जीवन व्यतीत करता है अथवा राक्षसी वृत्ति का शिकार हो जाता है।
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केवल सत्संग में ही यह सामर्थ्य है कि वह मनुष्य को यथार्थ में मनुष्य बना सकता है, मनुष्य-जीवन के उद्देश्य के बारे में ज्ञान प्रदान कर सकता है। सत्संग से ही जीवन का सच्चा आनन्द मिलता है। माँ के श्रीमुख से व्याख्या सुनकर महाराज जी अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने माताजी के चरण छूकर कहा- माँ, मैं जीवन पर्यन्त आपकी महत्त्वपूर्ण शिक्षाप्रद बातों का ध्यान रखूँगा और वे घर से विदा हो गये।
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