राजनीति में एक बात आम है ‘दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहिए।’ यह सच भी है। राजनीति में अधिकत्तर लोगों के दिल नहीं मिलते, लेकिन सत्ता की लोलुपता में एक दूसरें से हाथ मिलाते रहते हैं। अधिकत्तर राजनेता मंच से एक-दूसरे पर छींटाकशी करते रहते हैं, लेकिन बंद कमरे में दोस्त की तरह मिलते हैं। यही वजह है कि आम आदमी और कार्यकर्ता जब ऐसे लोगों को साथ देखती है, तो वह खुद को ठगा सा महसूस करता है। मगर राजनीति में ऐसा ही होता है। यहां दोस्ती और दुश्मनी लंबी नहीं होती। दोनों बातें अवसर पर निर्भर करती हैं कि दोस्ती और दुश्मनी कितनी लंबी चलेगी।
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की हवाई जहाज में मुलाकात के बाद सियासी चर्चाएं तेज हो गई हैं। हालांकि कुछ लोग इस मुलाकात को इत्तेफाक मान रहे हैं, जबकि सियासी जानकारों का कहना है कि राजनीति में कुछ भी इत्तेफाक नहीं होता बल्कि पूर्व नियोजित होता है। इसे ऐसे में समझा जा सकता है कि यूपी में कांग्रेस जहां अपना वजूद तलाश रही है, वहीं सपा किसी भी तरह से सत्ता में आने को बेताब है। इसके लिए अखिलेश हर छोटी-बड़ी पार्टियों को साथ लाने का प्रयास कर रहे हैं। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर से गठबंधन को लेकर उनकी बात चल रही है। बीते दिनों दोनों नेताओं की लंबी मुलाकात भी हुई है।
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बता दें कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के विकल्प के रूप में समाजवादी पार्टी काफी मजबूत स्थिति में है। ऐसे में कांग्रेस की सक्रियता से सपा को नुकसान पहुंचना तय माना जा रहा है। लखीमपुर खीरी हिंसा मामले में प्रियंका ने जिस तरह विपक्ष की भूमिका निभाई है वह कांग्रेस की सक्रिय राजनीति की परिचाय है। हालांकि उनकी सक्रियता पर बौखलाकर अखिलेश यादव ने बयान भी दिया था कि वह बंद कमरे में बैठकर क्या जाने सपा के लोग कितना संघर्ष कर रहे हैं। सबसे ज्यादा लाठियां समाजवादी पार्टी के लोगों ने खाई है। उनका बयान अपनी जगह सही भी था। लेकिन घटना के बाद सपा का जो तेवर था वह दो दिन में ही ठंडा पड़ गया, जबकि प्रियंका गांधी पीड़ित परिवारों से मिलने की अपनी जिद पर अड़ी रहीं। उनकी गिरफ्तारी तक हुई, लेकिन वह पीड़ित परिवार से मुलाकात करके ही मानी।
वहीं सपा सशक्त व मजबूत पार्टी होने के बावजूद भी प्रियंका गांधी वाड्रा से पीछे रह गई। अब अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी के इस अचानक आमना-सामना होने के बाद नए तरह की सियासी चर्चाएं तेज हो गई हैं। ऐसा कहा जाने लगा है कि विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच गठबंधन हो सकता है। हालांकि अखिलेश यादव और सपा में महाराष्ट्र के अध्यक्ष अबू आजमी ने तो कह रखा है कि कांग्रेस से गठबंधन नहीं करेंगे। पिछली बार हम लोगों से भूल हो गई थी। लेकिन जिस तरह से राजनीतिक गुणा गणित चल रही है, उससे यह कयासबाजी लगनी शुरू हो गई है कि सपा और कांग्रेस में कभी भी गठबंधन का एलान हो सकता है।
गौरतलब है कि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ’27 साल यूपी बेहाल’ के नारे साथ चुनावी मैदान में उतरी थी। लेकिन सपा से गठबंधन होते ही कांग्रेस का यह चुनावी कैंपेन गायब हो गया। हालांकि दोनों का गठबंधन कुछ खास नहीं कर पाया और प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। इस बार भी विपक्षी पार्टियों की अपनी डफली, अपने राग हैं। अभी सभी प्रदेश में अपनी सरकार बनाने के दावे कर रहे हैं। वहीं कुछ छोटे दल मिलकर सरकार चलाने का फार्मूला तक तैयार कर डाला है। लेकिन कटु सत्य यह है कि सभी दल मिलकर भाजपा को अपदस्थ करने में लगे हैं।
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विपक्षी दलों को अपनी जीत से ज्यादा भाजपा की हार की चिंता सता रही है। क्योंकि यह पहली मर्तबा नहीं है जब भाजपा को हराने के लिए पूरा विपक्ष साथ खड़े होने को मजबूर हैं। इससे पहले भी गठबंधन, महागठबंधन का प्रयाग हो चुका है। यहां तक कि एक-दूसरे के ध्रुव विरोधी सपा-बसपा भी मिलकर चुनाव लड़ चुके हैं। विपक्षी पार्टियों को यह सोचना होगा कि भाजपा को हराने के लिए अपनी नीतियो को स्पष्ट करना होगा। मंच पर गाली, कमरे में गले मिलना यह बात जनता बाखूबी समझने लगी हैं। ऐसे में जनता को गुमराह करने की जगह अपनी नीतियों के बारे में बताना होगा। क्योंकि भाजपा सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के साथ आगे बढ़ रही है। इस बात को विपक्ष को समझना होगा।
(लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)