किसी भी परंपरा अथवा प्रचलन पर किसी टिप्पणी से पहले तार्किकता और वैज्ञानिकता की परख बहुत जरूरी है। क्या आपने कभी इस तथ्य पर विचार किया है कि जब राजा राममोहन राय ने हमारे हिंदू धर्म में प्रचलित कुरीतियों में से एक कुरीति- सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाई थी, तो सामान्य जन मानस और हिंदू विचारधारा के तथाकथित बुद्धिजीवियों की क्या प्रतिक्रिया रही होगी? निःसंदेह पहला स्वर असहमति का ही रहा होगा। फिर भी राजा राम मोहन राय ने इस दिशा में तब तक प्रयास किया जब तक कानून के द्वारा इसकी समाप्ति पर मुहर नहीं लग गई।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इतिहास के इस प्रसंग को उठाने का मेरा अभिप्राय बिलकुल साफ है। इसे ऐसे समझें। यदि आपकी फुलवारी में कोई खर पतवार उग आता है तो आप क्या करते हैं? आपके पास सामान्यतः दो विकल्प होते हैं। पहला, उस खर पतवार को और खाद पानी देकर पोषित करना, दूसरा उसे समूल नष्ट करना, ताकि आपकी फुलवारी की शोभा बनी रहे। आप दूसरा विकल्प ही अपनाएंगे। यह सामान्य समझ की बात है। यही सामान्य सी बात हम जीवन के हर पहलू में क्यों नहीं लागू कर पाते? हमारे धर्म में समय-समय पर कर्मकाण्ड के नाम पर जो कुरीतियां और आडंबर स्थान लेते जा रहे हैं, उन्हें खत्म करने का जिम्मा किसका है? निःसंदेह हमारी ही जवाबदेही बनती है।
बीते दो नवम्बर को अक्षय नवमी (Akshay Navami)/आँवला नवमी (Amla Navami) थी। जिन्हें इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है उनके लिए कुछ तथ्य-
(1) कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अक्षय नवमी (Akshay Navami) के रूप में जाना जाता है।
(2) द्वापर युग का आरंभ इसी नवमी तिथि को माना जाता है।
(3) श्रीहरि विष्णु जी ने आज के दिन ही कुष्मांडक दैत्य को मारा था, जिसके रोम से कुष्मांडक सीतफल की बेल निकली थी। इसीलिए इसे कुष्मांडक नवमी भी कहते हैं।
(4) एक प्रसंग यह भी आता है कि इस दिन माता लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण के लिए आई थीं और उनके मन में श्रीहरि विष्णु जी तथा शिव जी की एक साथ पूजा करने इच्छा जागृत हुई। चूँकि आंवले के वृक्ष में बेल और तुलसी दोनों के गुण एक साथ पाए जाते हैं। बेल शिव जी को प्रिय है और तुलसी विष्णु जी को अतः लक्ष्मी जी ने आंवले के वृक्ष का पूजन किया तथा उसके नीचे बैठकर भोजन किया। तभी से इस नवमी को आंवला नवमी (Amla Navami) के नाम से जाना जाता है।
(5 ) इस दिन आँवले के वृक्ष की परिक्रमा, पूजन एवं इसके नीचे बैठकर प्रसाद स्वरूप कुछ ग्रहण करने का विधान है।
अब आते हैं मुख्य प्रसंग पर। इस आँवला नवमी (Amla Navami) को आँवले के वृक्ष की परिक्रमा और पूजन के उपरांत अगले दिन का दृश्य थोड़ा असहज कर देने वाला था। जनता जनार्दन पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ आंवला नवमी (Amla Navami) मना रही थी, इसमें कोई संदेह नहीं है मुझे। मगर, यह बात भी उतनी ही सत्य है कि अंध भक्ति कहीं से भी उचित नहीं है।
अगले दिन का दृश्य वर्णित कर रही हूं। जिस जगह पर आँवले का वृक्ष है, उसी पार्क में सुबह की सैर के समय मैंने महसूस किया कि अजीब सी दुर्गंध आ रही है। रुक कर देखा तो दृश्य देखकर और मनुष्यों की मूढ़ता पर मन क्षोभ से भर उठा। आँवले के वृक्ष के चारों ओर पूरी हलवे का अंबार बिछा हुआ था, जो कि सड़ चुका था। कोई कुत्ता भी उसे मुँह नहीं लगा रहा था। पार्क में बंदर भी आस-पास टहल रहे थे, मगर कोई उस खाद्य पदार्थ से उठ रही सड़ांध की वजह से कोई जानवर आसपास भी नहीं फटक रहा था।
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क्या सच में यही श्रद्धा है, यही भक्ति है? क्या इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु हमारे पूर्वजों ने वृक्ष पूजन प्रारंभ किया होगा? निः संदेह नहीं। प्रकृति से प्रेम, प्रकृति का सरंक्षण और संवर्धन ही हमारी सनातन संस्कृति का मूल है। यह बात क्यों भूल जाते हैं हम। आँवले के वृक्ष का पूजन, उसके छांव तले भोजन करने के पीछे का एक महती उद्देश्य यह भी रहा होगा कि मानव जीवन में प्रकृति के महत्व की समझ को हर पीढ़ी में स्थानांतरित किया जाए।
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आँवले के वृक्ष के पूजन से पुण्य मिलता होगा मैं मानती हूं, मगर इस तरह भोजन के निरादर से अन्न देवता के रूष्ट हो जाने का खतरा भी तो है ही। सामान्य समझ का प्रयोग कर इससे बचा जा सकता है। कोई भी रूढ़ि, रिवाज मानने से पहले थोड़ा तो तार्किक होकर सोच लें। आँवले को पूड़ी हलवा अर्पित कर के हम सबकी पूजनीय गौ माता को खिला दिया जाए तो यकीनन पुण्य मिलेगा। तो माताएँ, बहनें और वो भद्र पुरुष जो लेख पढ़ रहे हों, अगली बार अगर आपको अपने धर्म रूपी फुलवारी में ऐसे खर पतवार दिखें, तो उन्हें बढ़ावा देने की जगह उन्हें मिटाने की दिशा में प्रयास करें। हमारा धर्म, हमारी संस्कृति की सुंदरता को हमें ही संरक्षित और संवर्धित करना है, तभी सनातन संस्कृति और अधिक पल्लवित, पुष्पित होगी। ऐसे खर पद वालों को दूर कर इसे विकृत होने से बचाना है। यह दायित्व हम सबका हैं।
(लेखिका साहित्यकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)