Kamlesh Kamal
कमलेश कमल

वैराग्य भले ही एक आध्यात्मिक अवधारणा हो, किम्वा भाषा-विज्ञान और व्याकरण की अवगाहना से भी इसके मंतव्य की संपुष्टि संसिद्ध होती है। वैराग्य है राग की विरुद्धार्थी संकल्पना। राग है सांसारिक सुखभोग से जुड़ना, तो वैराग्य है राग से विरत होने, मुक्त होने की अवस्था। यह है सुखभोगों से विरक्ति अर्थात् त्याग का मार्ग, छोड़ने का मार्ग। राग छूट जाए, मोह का बँधन टूट जाए, तो लोभ भी छूट जाए, क्रोध भी छूट जाए, तो वैराग्य घटित हो जाए। वस्तुतः, बँधन का टूटना ही वैराग्य की पूर्वपीठिका है, स्वातंत्र्य का प्राकट्य है।

जो स्वतंत्र है, वह किसी के अधीन नहीं होता। इसी को वैयाकरणिक दृष्टि से भी देख सकते हैं-
पाणिनि लिखते हैं- “स्वतंत्र: कर्ता!” कर्ता स्वतंत्र होता है, किसी के अधीन नहीं होता। इसका अर्थ यह है कि कर्ता किसी से नहीं बँधता… न कर्म से, न क्रिया से और न ही करण से। हाँ, कर्म और करण उससे संपृक्त होते हैं, उससे सम्बद्ध होते हैं, पर वह स्वयं इनसे नहीं बँधता। इसका सीधा-सीधा निहितार्थ है कि मनुष्य को क्रिया करनी चाहिए, उससे बँधनी नहीं चाहिए।

कर्मों के विषय में आत्मा को कर्ता मानना मिथ्याबोध है, और कुछ नहीं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-
“शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति, न लिप्यते!”
यह आत्मा शरीर में रहते हुए भी न कार्य करता है, न लिप्त होता है।

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यहाँ यह प्रश्न उठता है कि मिथ्याबोध बोध क्यों होता है? व्यक्ति स्वयं को कर्ता क्यों समझने लगता है?? इसका उत्तर भी गीता में है-
“अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।”
अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अर्थात् अहंकार से तादात्म्य रखनेवाला मनुष्य अपने को कर्ता समझ बैठता है।

उपर्युक्त वैचारिकी के आलोक में देखें तो ‘कार्य-कारण-प्रभाव’ त्रयी की अवधारणा मिथ्या नहीं है, पर इनमें किसी से भी आसक्ति अनुचित है। अस्तु, आसक्ति की बात करें, तो यह एक आगन्तुक दोष है, जन्मतः नहीं है। जो इस आगन्तुक दोष से विलग हैं, उनके लिए तो वैराग्य भी स्वत: उपलब्ध है और वैराग्य का निमित्त परमात्मा भी।

“अनन्यचेत: सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।।”
अर्थात् हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य, निरंतर स्मरण करता है, उसके लिए मैं सदा सुलभ हूँ।

कर्ता के स्वतंत्रता की अवधारणा से आबद्ध है-क्रिया और करण का रूपोद्घाटन।
करण क्रिया की सिद्धि में सहायक होते हैं। कहा गया है- “साधकतमं करणम्” अर्थात् करण के बिना किसी क्रिया की सिद्धि नहीं होती। यहाँ, इसका यह अर्थ नहीं है कि करण से ही क्रिया होती है। करण तो बस सहायक होता है कर्म में। कर्ता के द्वारा जो कलम से लिखने की क्रिया हुई प्रतीत होती है, उसमें करण कलम है।

कलम स्वयं नहीं लिखती, प्रत्युत लिखने में सहायक सिद्ध होती है। यहाँ देखें तो लिखने की क्रिया हुई, जिसमें कर्ता, करण आदि जुड़े हैं, पर कर्ता को इनमें आसक्ति नहीं होनी चाहिए, न ही उसमें कर्तापन का बोध ही होना चाहिए! विचार करना चाहिए कि लिखने की क्रिया, कलम से हुई, कलम के अंदर की स्याही से हुई, स्याही और कागज़ के मेल से हुई, कर्ता के विचार से हुई, परिस्थिति से हुई, ज्ञान से हुई, भावना से हुई, दैवीय कृपा या विधान से हुई या सबकी सुसंगत युति से हुई? जैसे ही होशपूर्वक इस पर देखने का योग बनता है, कर्तापन तिरोहित हो जाता है।

इस अवधारणा को एक अन्य तरह से भी देखा और समझा जा सकता है। हम कह तो देते हैं कि अंतःकरण से यह मानता हूँ, समझता हूँ, फ़िर भी हम कार्य से तादात्म्य जोड़ लेते हैं। अन्तःकरण करण है। करण क्या है? साधन है। साधन कर्ता नहीं हो सकता, तो अन्तःकरण कर्ता कैसे हो सकता है? बात एकदम स्पष्ट है- करण में कर्तापन को देखना, समझना एक ग़लत तादात्म्य है।

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कर्ता, भोक्ता भी होता है। इसका मंतव्य यह भी है कि जो करेगा, वह भोगेगा। अगर तादात्म्य ज़्यादा होगा, तो भोगना भी ज़्यादा होगा। वैसे, भोगते सभी हैं- योगी योग के भोगी, तो ज्ञानी ज्ञान के भोगी होते हैं और भक्त भगवद्प्रेम के भोगी होते हैं। इनसे असंगत तादात्म्य ही दुःख का कारण है। जिसमें यह तादात्म्य नहीं है, उसी में वैराग्य घटित होता है।

(लेखक साहित्यकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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