Pauranik Katha: राजा परीक्षित एक बार शिकार करने के लिए निकले और जंगल में दूर निकल गये। भूख-प्यास से त्रस्त होकर वे एक आश्रम पहुँचे जहाँ शमिक ऋषि ध्यान मग्न थे। देखो, भूख-प्यास से जब आदमी व्याकुल हो जाता है तो उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और उसकी समझ काम नहीं करती। इसीलिए जब बहुत भूख लगती है तो लगता है कि क्या करें, किसको खायें, किसको तोड़ें-फोड़ें या मार दें। भूख लगने पर बच्चे कितना क्रोध करते हैं? खाने-पीने के बाद तो वे शान्त हो जाते हैं, लेकिन उसके पूर्व पता नहीं, जैसे किसी राक्षस का अवतार बने रहते हैं।

अब राजा परीक्षित ने ध्यानस्थ ऋषि के सामने खड़े होकर पीने के लिए जल माँगा तव वे ऋषि समाधि में थे, उन्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ा, अतः, राजा परीक्षित को कुछ मिला नहीं। उन्हें लगा उनका बड़ा अपमान हुआ है। इसी कारण राजा को बहुत क्रोध आ गया। उन्होंने सोचा कि ये बड़े दम्भी हैं। मैं एक चक्रवर्ती राजा, यहाँ आया हूँ और ये मेरा सम्मान नहीं करते? राजा को इतना अधिक क्रोध आया कि पास ही पड़े हुए एक मृत सर्प को अपने एक बाण से उठाकर शमिक ऋषि के गले में डाल दिया।

परीक्षित जैसे ऊँचे चरित्र वाले परम धार्मिक व्यक्ति ने ऐसा कार्य किया। इसका तात्पर्य क्या हुआ? यही कि आदमी को सर्वदा सावधान रहना चाहिए। कोई कितना ही बड़ा हो जाए, लेकिन कभी-कभी उसका दिमाग इस तरह फिर जाता है कि उसके द्वारा ऐसा निकृष्ट कर्म हो जाता है। यहाँ एक बात यह भी है कि ऐसा काम करके कभी-कभी लोग बोलते हैं कि परीक्षित ने भी ऐसा किया था, मैंने किया तो क्या बिगड़ गया?

अपनी तुलना परीक्षित के साथ कभी नहीं करना। क्योंकि देखने की बात यह है कि राजा परीक्षित हमेशा कैसे रहते थे? जीवन में मात्र एक बार उनसे इस प्रकार का अपराध हुआ था। हमसे निरंतर ही अपराध होते रहते हैं। हमारी और उनकी क्या तुलना है? इतनी ही बात नहीं है। इस घटना के बाद आगे क्या हुआ, वह इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। सच बात तो यह है कि परीक्षित जैसे व्यक्ति के मन में ऐसा कोई भाव आता है, तो वह भगवान का ही संकल्प है। जैसे, युद्धभूमि में अर्जुन को जो मोह हुआ, वह क्या सच में अर्जुन को मोह था?

भगवान ने उसे मोहित कर दिया। क्योंकि भगवान इस भगवद्गीता का ज्ञान सारी सृष्टि को देना चाहते थे, तो उन्होंने अर्जुन को निमित्त बनाया, कि चलो, तुम मोहित हो जाओ। अर्जुन को पता भी नहीं, वह मोहित हो गया। भगवान ने उसके मोह को दूर भी कर दिया। इसी प्रकार, भगवान ने परीक्षित को थोड़ी देर के लिए मोहित कर दिया और हमको इतना बड़ा भागवत दे दिया। भक्तों का मोह भी संसार के लिए कल्याणकारी होता है।

राजा परीक्षित ऋषि के गले में साँप डाल कर चले गये। उन ऋषि का नाम शमीक ऋषि था। उनका पुत्र था श्रृंगी। उस पुत्र को जब पता लगा कि राजा ने आकर मेरे पिता के गले में मरा हुआ साँप डाला है। तो उसको बड़ा दुःख हुआ, फिर क्रोध आया। बोले, क्षत्रिय राजा तो ब्राह्मण ऋषि का सेवक होता है, गुलाम होता है, हमारा पहरेदार होता है, द्वारपाल होता है। स्वामी का ऐसा अपमान, तुमने एक मरा हुआ साँप मेरे पिताजी के गले में डाला है।

तो आज से सातवें दिन तक्षक नाग आकर तुमको दंश करेगा और तुम्हारा मरण हो जाएगा। ऋषि पुत्र ने इस प्रकार शाप दे दिया। और फिर ऋषि के गले में पड़े साँप को देखकर रोने लगा। तब ऋषि ने आँखें खोलीं। देखो, राजा परीक्षित के वचन सुनकर उनकी समाधि भंग नहीं हुई परन्तु इस समय हो गई, यह भी भगवान का ही संकल्प है। आँख खोल के जब उन्होंने देखा कि गले में साँप है, तो उसको निकालकर रख दिया और पुत्र से पूछने लगे- तू रोता क्यों हैं? क्या हो गया है तुझे? उसने सारा वृत्तांत सुनाकर कहा कि फिर मैंन उसको सर्प दंश से मुत्यु का शाप दे दिया। देखो, ऋषि कितने महान थे। ऋषि ने कहा- बेटा तूने बड़ा गलत काम किया। वह राजा बड़ा घर्मात्मा है, उसी के कारण कलि यहाँ पर अपना प्रभाव जमा नहीं पा रहा है।

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उसी के कारण राज्य-व्यवस्था ठीक चल रही है, सभी लोग धर्म का पालन करते हैं। कदाचित किसी कारण से उससे कोई भूल हो गई तो उसके लिए तुमने इतना बड़ा शाप दे दिया? कोई पाँच रुपये की चोरी करे तो उसे सीधे फाँसी की सजा दी जाए तो यह कोई न्याय होता है? एक छोटे-से अपराध के लिए इतना बड़ा दण्ड। यह तुमने बड़ा अनुचित कार्य किया। अब कम-से-कम इतना करो कि राजा को सूचना भेज दो कि उनको ऐसा शाप मिला है। जिससे कि उन्हें जो कुछ करना हो वे कर सकें। देखो, शमीक ऋषि की साधुता! राजा ने उनके गले में साँप डाला, इस बात को उनको जरा भी बुरा नहीं लगा। लेकिन अपने बेटे ने एक अच्छे राजा को शाप दे दिया वह बुरा लगा। इसका अर्थ है उनके मन में किसी प्रकार की आसक्ति-ममता नहीं थी।

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