Kahani: एक राज्य में एक निर्धन राजा रहता था। पड़ोसी राज्य से युद्ध के बाद उसका राजसी खजाना खाली हो चुका था। धन संपत्ति के नाम पर उसके पास कुछ शेष नहीं था, मगर वह एक कोमल ह्रदय राजा था और प्रजा की खुशहाली के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था। प्रजा अपनी समस्याएं लेकर उसके पास आती, वह उन्हें ध्यान से सुनता और अपने सामर्थ्य अनुसार उनका निराकरण करने का प्रयास करता। उसके दयालु और उदार स्वभाव के कारण प्रजा उससे बहुत प्रेम करती थी। किन्तु राजा को सदैव इस बात का दुख रहता था कि धन की कमी के कारण वह अपनी प्रजा के लिए अधिक कुछ नहीं कर पाता।
एक दिन उसके राज्य में एक साधु आया लंबी यात्रा के कारण वह भूख प्यास से बेहाल हो चुका था और रास्ते के किनारे निढाल होकर बैठा हुआ था। उसी समय राजा प्रतदिन की भांति प्रजा की स्थिति जानने के लिए भ्रमण पर निकला उसकी दृष्टि उस साधु पर पड़ी वह उसके पास गया और उसका हाल पूछा, साधु ने कहा कि उसे जोरों की भूख लगी है। राजा उसे अपने महल ले गया और उसे भोजन करवाया। साधु राजा के दयालु स्वभाव से बहुत प्रसन्न हुआ और उसका धन्यवाद देकर पूछा, “महाराज! आप इतने दुखी क्यों दिखाई पड़ते हैं।”
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राजा ने उसे बताया कि वह अपनी प्रजा की खुशहाली के लिए बहुत कुछ करना चाहता है, किंतु उसके पास धन नहीं है, इसलिए वह दुखी रहता है। साधु ने उसे समझाते हुए कहा, “महाराज! आपके पास दयालुता और कोमल ह्रदय का सबसे बड़ा धन है, जो आप अपनी प्रजा में बांटते हैं। आपके पास जो है, उसके साथ ही प्रजा की भलाई और उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए सब कुछ करते हैं। आपकी ये भावना आपको सबसे धनवान बनाती है। इसलिए आपकी प्रजा कमियों के बाद भी आपके राज में सदा प्रसन्न और खुशहाल रहती है। साधु के इन शब्दों का राजा पर गहरा असर हुआ, उसने तय किया कि वह जिस हाल में है, उसी में खुश रहेगा और उसी हाल में रहकर अपनी प्रजा के साथ खुश रहेगा। वह समझ गया था कि जीवन में सबसे बड़ा धन आंतरिक खुशी है।
तात्पर्य:- निर्धन राजा की यह नेक कथा हमें यह सिखाती है कि धन की अधिकता न होने पर भी हम अपनी विश्वसनियता, उदारता और दयालुता से अपने जीवन को खुशहाल बना सकते हैं।
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