Kahani: राजा कृष्णदेव राय का दरबार सजा था। सदा की भाँति तेनालीराम भी अपने आसन पर विराजमान थे। महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में योग्य व्यक्तियों का अभाव न था। वे स्वयं एक कवि थे। उन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथ भी लिखे थे, किंतु तेनालीराम के बिना वे अपने आपको अकेला पाते थे।

तेनालीराम जिनकी सूझ-बूझ और विनोद के किस्से आप सबने सुने हैं। उन्हें दक्षिण का बीरबल भी कहा जाता है। एक बार की बात है। महाराज कृष्णदेव गहरी उलझन में थे। एक साहूकार ने कुछ वर्ष पूर्व उनसे उधार लिया था। अब समय समाप्त हो गया था। परंतु वह पैसा वापिस लौटाने को तैयार न था। जब भी कोई कर्मचारी पैसा माँगने जाता तो साहूकार बहाने बनाकर लौटा देता।

महाराज के माथे पर चिंता की लकीरें देखकर तेनालीराम बोले- ‘आप यह काम मुझे सौंप दें। मैं उसकी सभी चालाकियाँ बेकार कर दूँगा।’ बस यह सुनने भर की देर थी। महाराज ने उन्हें सारी जिम्मेदारी सौंप दी। पहले तेनालीराम ने अपने नौकर को साहुकार के घर भेजा। उसने बताया कि साहूकार ने घर में तो घुसने नहीं दिया। उसके जैसे बीस व्यक्ति कमरे में खड़े हैं।

तेनालीराम मन ही मन मुस्कुरा दिए। अगले दिन वे स्वयं ही जा पहुँचे। सचमुच एक जैसे बीस साहूकार खड़े थे। किसी में भी राई-रत्ती का अंतर न था। अब समस्या यह थी कि पैसा माँगा किससे जाए? तेनालीराम ने आवाज में मिठास घोलकर कहा- ‘भई वाह! साहूकार, तुम्हारी हमशक्ल मूर्तियाँ देखकर मजा आ गया। मान गए तुम्हारी कलाकारी को, परंतु तुम एक गलती कर गए।

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साहूकार ने अपनी तारीफ सुनी तो मन ही मन फूला न समाया। परंतु तेनालीराम की अधूरी बात ने उसे जिज्ञासा में भर दिया। वह मूर्तियों के बीच से निकलकर बोल पड़ा- कौन-सी गलती कर दी मैंने? तेनालीराम जोर से हँस दिए और कहा- बस यही गलती कर दी कि तुम बोल पड़े और पकड़े गए। अब दरबार में चलो और अपना उधार चुकाओ।

साहूकार ने तेनालीराम के पाँव पकड़कर माफी माँगी और चुपचाप उधार लौटाने चल दिया। दरबार में तेनालीराम पहुँचे तो तालियों की गड़गड़ाहट के साथ इनाम भी तैयार था। एक बार फिर सब मान गए कि तेनालीराम का जवाब नहीं। तेनालीराम की कथाएँ हमें सिखाती हैं कि व्यक्ति को वातावरण और समय के अनुसार बुद्धिमत्ता का प्रयोग करना चाहिए।

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