Kahani: किसी नगर में एक वैद्य रहते थे। उनका व्यवहार बेहद कुशल और विनम्र था, इसीलिए वे उस पूरे इलाके में बहुत इज्जत भी पाता था। वे अपने चिकित्सा आश्रम में ही रोगियों का इलाज़ करते थे। एक बार एक सेठ अपने बच्चे को दिखाने उस वैद्य के पास पहुंचा। बच्चे को देखने के बाद वैद्य ने एक पुड़िया दवा दी और पुर्चे पर आगे चलने वाली दवा लिख दी।
सेठ ने वैद्य से पूछा, क्या फीस देनी होगी? वैद्य ने कहा, आप मुझे 100 सोने की अशर्फी दे दीजिये। यह बात पास बैठा दूसरा मरीज सुन रहा था, जो बेहद गरीब था। उसने सोचा कि इतनी फीस मैं कैसे दे पाऊँगा? यह सोच कर वह चुपचाप उठ कर जाने लगा। वैद्य ने उससे पूछा, तो उसने सारी बात बता दी। वैद्य ने कहा, तुम यही बैठो, तुम्हारा इलाज़ मुफ्त में होगा। जब तुम ठीक हो जाओ तब आश्रम आकार दूसरों की सेवा कर देना। यह बात सुन कर सेठ मन ही मन क्रोधित हो गया और वैद्य को बोला, वैद्य जी, आप तो बहुत घटिया इंसान हैं। मेरा पैसा देख कर आपको लालच आ गया और मुझसे इतनी बड़ी रकम मांग बैठे, जबकि इसका इलाज़ आपने मुफ्त में ही कर दिया। मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।
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वैद्य मुस्कुराते हुए बोले, नहीं सेठ जी, ऐसी बात नहीं है। दरअसल, मेरे आश्रम को चलाने के लिए मुझे दो चीजों की आवश्यकता होती है– धन और सेवा, जिस व्यक्ति के पास जो चीज़ होती है, मैं वही मांगता हूँ। आपके पास धन है तो मैं आपसे धन लूँगा और इस व्यक्ति के पास धन नहीं है, इसीलिए ठीक होकर यह मेरे आश्रम में अपनी सेवा प्रदान करेगा। सेठ, वैद्य की बात सुन कर सन्न रह गए। उन्होंने वैद्य से कहा, मुझे माफ कर दीजिये वैद्य जी, मैं बगैर आपका भावार्थ समझे हुए ही किसी गलत निष्कर्ष पर पहुँच गया था। मैं यह भूल गया था कि आप जैसा व्यक्त यदि कुछ कर रह है, तो निश्चित ही उसका कोई विशेष कारण होगा। यह कहते हुए सेठ ने वैद्य की हथेली पर 100 स्वर्ण अशर्फी रखी और मुस्कुराते हुए अपने घर की ओर चल पड़ा।
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