सनातन संस्कृति में केवल श्रुति ही सर्वोच्च है। यहां किसी शीर्ष आचार्य या किसी एक पुस्तक की नहीं चलती। यह विश्व के कल्याण और प्राणियों में सद्भावना का मार्ग है। भगवान आदि शंकर हमारे ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों में समाज की एकता और अखंडता के लिए पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में एक-एक केंद्र स्थापित कर सारा प्रयास जोड़ने के लिए किया। इसमें किसी पीठ को दंभ और सर्वोच्चता पालने की अनुमति नहीं। जो स्वयं को शास्त्रोन्मुख मानते हैं उनको भगवान शंकराचार्य के श्री मठामनाय के आदेश को मानना चाहिए। प्रत्येक शंकर पीठ का एक सुनिश्चित क्षेत्र है, जिसमें सनातन की सुरक्षा उस संबंधित पीठ का दायित्व है। अब यह चिंता का विषय हो सकता है कि ऐसी पीठ के रहते उस क्षेत्र में मंदिर कैसे टूटने लगते हैं। उस क्षेत्र में मिशनरियां पंथ परिवर्तन कैसे करने लगती हैं। भारत का दक्षिण और पूर्वोत्तर इसका उदाहरण हो सकता है।
पूर्वामनाय गोवर्धन पीठ के अधीन समस्त पूर्वोत्तर भारत का हिस्सा आता है। जहां यह पीठ स्थित है वहीं पड़ोस के बंगाल की हालत देख लीजिए। यह पीठ कितनी सक्रिय है और अपने दायित्व का कितना निर्वहन कर रही, आप स्वयं मूल्यांकन कर लीजिए। यह एक उदाहरण भर है, इतिहास साक्षी है कि विगत एक हजार वर्षों में भारत और सनातन पर हुए किसी हमले के विरुद्ध किसी पीठ ने क्या किया है। यदि ये इतने ही शक्तिशाली हैं, तो सोमनाथ क्यों टूट गया? काशी में भगवान विश्वेश्वर का मंदिर क्यों ध्वस्त हो गया? अयोध्या में श्री रामजन्म भूमि कैसे म्लेच्छ के हाथ लग गई? मथुरा में भगवान कृष्ण की जन्म भूमि कैसे ईदगाह बन गई? आखिर ये स्वनामधन्य हिंदुत्व के सर्वोच्च शिखर वाले लोग कहां थे और क्या कर रहे थे?
भारत लगभग 1000 वर्ष अनेक आक्रांताओं के प्रभाव में अथवा अधीनता में रहा है। भारत के सामान्य सन्यासी अवश्य पूरे समय युद्धरत दिखते हैं। वे गंभीर संघर्ष करते मिलते हैं। आज भी कर रहे हैं। कथित शंकर पीठें क्या कर रही हैं, अब इसके मूल्यांकन का समय आ गया है। श्रीराम जन्मभूमि के 500 वर्षों के युद्ध में संन्यासियों के साथ विगत 70 वर्षों में एक वर्तमान शंकराचार्य ज्योतिष पीठ के स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती और ब्रह्मलीन कांची के पूज्य शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती का संघर्ष दिखता है। एक गंभीर प्रश्न है कि जिस दीपावली के समय स्वामी जयेंद्र को झूठे आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा गया था, तो कितने शंकराचार्य उसके विरोध में सामने आए? ज्योतिष पीठ को विवादित बना कर फर्जी शंकराचार्य घोषित किए गए, तो कितने शंकराचार्य सामने आए? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी कई फर्जी छत्रधारी स्वयभू शंकराचार्य बनकर अनाप-शनाप बयान देकर सनातन समाज को बांटने का षड्यंत्र कर रहे हैं, इनके विरुद्ध भी असली वाले को बोलना चाहिए। बतौर शंकराचार्य चार तस्वीरें सोशल मीडिया पर चलाई जा रही हैं। ये चारों हैं कौन? इन्होंने सनातन के लिए किया क्या है?
यदि भगवान शंकराचार्य की चिंता और उनके आदेशों को मानना ही है तो उनके मठ सिद्धांत के अनुसार ही किसी भी शंकराचार्य को कुछ भी कहने या करने का अधिकार है। वैसे भी अयोध्या, काशी और मथुरा के क्षेत्र उत्तर मठ ज्योतिष्पीठ की चिंता के विषय हैं और इसके लिए ज्योतिष्पीठ सतर्क है। यहां के शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद के ही शिष्य स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती ही पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक के संतों को एकजुट कर अखिल भारतीय संत समिति के महामंत्री के रूप में सनातन के प्रत्येक विषय पर लड़ते हुए दिख रहे हैं। देश के 1200 संतों और 500 महामंडलेश्वरों और मंडलेश्वरों ने उन्हीं के नेतृत्व में बीते 2 नवंबर को काशी में भगवान विश्वेश्वर का अभिषेक कर श्री राम जन्मभूमि के बलिदानियों को श्रद्धांजलि दी। तीन दिनों तक सनातन के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर चिंता कर उनके उपाय भी तलाशे गए और उन विषयों पर कार्य भी हो रहा है।
अयोध्या में आज जो दिख रहा है उसकी प्रतीक्षा 500 वर्षों से सनातन हिंदू समाज कर रहा था। 77 युद्ध लड़े गए हैं। ढाई करोड़ से अधिक हिंदुओं का बलिदान हुआ है। यह तो प्रत्येक आचार्य के लिए भी गर्व का विषय होना चाहिए कि सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य और देवी अहिल्याबाई होलकर के बाद भारत को एक ऐसा सनातनी सम्राट मिला है, जिसके नेतृत्व में सनातन के सभी तीर्थों और प्रतीकों का जीर्णोद्धार हो रहा है। भगवान शंकराचार्य की भी पुनर्स्थापना तो इसी सम्राट ने की है।
केवल श्रुति सर्वोच्च, व्यक्ति या संस्था नहीं
सनातन में केवल श्रुति अर्थात वेद ही सर्वोच्च हैं। वाल्मीकि ने भगवान राम को भी श्रुति सेतु पालक ही कहा है। सनातन किसी एक पन्थ के आदेश से नहीं चल रहा है। वेदान्त दर्शन की ही 8 प्रकार की व्याख्या है। शङ्कराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, तान्त्रिक पीठ आदि के सैकड़ों पीठ हैं। किसी एक को हिन्दू या सनातन धर्म का मुख्य नहीं कह सकते हैं। शङ्कराचार्य के 4 पीठों की स्थापना चाहमान वंशी राजा सुधन्वा ने 496 ईपू में की थी तथा उनके आदेश से इन पीठाधीशों को अपने क्षेत्र में धर्म निर्णय का अधिकार दिया गया था। इनके ताम्रपत्र की प्रति संलग्न है, जिसे शङ्कराचार्य मठों में अपने अधिकार प्रमाण रूप में रखा जाता है।
पीठों के उत्तराधिकारी का चयन, उपाधि, वेद आदि का निर्णय शङ्कराचार्य के मठाम्नाय उपनिषद् में है, जिसके आधार पर मठ विवादों का निर्णय न्यायालय में आज तक हो रहा है। पीठ के उत्तराधिकारी शङ्कराचार्य साक्षात् ब्रह्मा या विष्णु नहीं हैं, न वे पूरे ब्रह्माण्ड को नियन्त्रित कर रहे हैं। भगवान आदि शङ्कराचार्य ने भी कभी स्वयं को सर्वोच्च घोषित नहीं किया था। उन्होंने अपने को ब्रह्माण्ड का नियन्त्रक नहीं बताया था, बल्कि भगवान के हर रूप की वन्दना के लिए स्तोत्र लिखे हैं- शिव पञ्चाक्षर, देवी अपराध क्षमापन, जगन्नाथ, हरिहर, मुख्य नदी स्तोत्र। रामानुज सम्प्रदाय के मठों में भी पूजा का आरम्भ शङ्कराचार्य रचित लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्र से होता है। इसमें कोई मतभेद नहीं है।
पांच यज्ञ केवल राजा द्वारा होते हैं-
(1) राजसूय-कर द्वारा राजस्व तथा उसका प्रजा के लिए उपयोग।
(2) अश्वमेध-देश के भीतर यातायात तथा सञ्चार को अबाधित रखना।
(3) चयन -हर काम के लिए उपयुक्त व्यक्ति का चयन, जैसे राजा सुधन्वा द्वारा 4 पीठ की स्थापना तथा अधिकारी चयन भी।
(4) शीर्ष-हर संस्था का मुख्य नियुक्त करना।
(5) वाजपेय-राष्ट्र की उन्नति, शक्ति बढ़ाना।
800 वर्ष पूर्व पुरी में जगन्नाथ मन्दिर निर्माण को भी एक वाजपेय यज्ञ कहा गया है। इससे समाज में एकता, शान्ति होती है, जिससे देश की शक्ति बढ़ती है। मन्दिर के लिये अन्य सभी कार्य भी राजा के ही दायित्व हैं- मन्दिर निर्माण के लिए संस्था का चयन तथा मुख्य की नियुक्ति (चयन और शीर्ष), निर्माण के लिए अर्थ संग्रह और उपयोग (राजसूय), अयोध्या के भीतर मार्ग निर्माण, बाहर से आने के लिए बस, रेल तथा विमान यातायात व्यवस्था (अश्वमेध)। इनमें एक भी कार्य राजा (शासक) के अतिरिक्त अन्य किसी से नहीं हो सकता-सबसे बड़े उद्योगपति या किसी शङ्कराचार्य या अन्य पीठाधीश द्वारा।
किसी सर्वोच्च पद की अवधारणा नहीं
मुदित अग्रवाल ने गंभीर अध्ययन और विवेचन के पश्चात बहुत स्पष्ट लिखा है कि सनातन हिन्दू धर्म में सर्वोच्च पद की अवधारणा नहीं है। वह लिखते हैं कि तमोगुणी नैतिकता के चलते सत्य को कोई सायास दबा तो देता है, पर उस चुभने वाली फांस को उससे पहले ही निकाल देना चाहिए, जिससे पहले कि वह गहरा घाव बना दे। असत्य का चिकना आवरण स्वयं ही अपने आप सरकने लगता है और एक दिन गिर जाता है। शंकराचार्य सनातन धर्म का सर्वोच्च पद है, यह 20वीं शताब्दी में उत्पन्न हुआ विचार है। इतिहास या शास्त्रों में अब तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं। पूरे राजस्थान के सहस्राब्दी इतिहास में एक भी रियासत शंकराचार्य को सर्वोच्च धर्मगुरु नहीं मानती थी।
प्रायः राजपूताने की सारी रियासतें दूसरे सम्प्रदायों और गुरुओं से दीक्षित थीं। राजपूताने के प्राचीन इतिहास में मारवाड़ से मेवाड़ ढूंढाड़ तक शैव नाथ पाशुपत आदि सम्प्रदायों और वैष्णव सम्प्रदायों के प्रचुर प्रमाण मिले हैं। राजस्थान में भागवत धर्म की धारा आरम्भ से ही चल रही थी, इसलिए आगे चलकर राजस्थान में वैष्णव सम्प्रदाय प्रमुख हो गए। मारवाड़ की धरा सदा से ही नाथपंथी रही है नाथयोगी चिड़ियानाथ के समय जोधपुर की स्थापना हुई थी, तब से अनवरत मारवाड़ में नाथपन्थ व करणी माई की धारा बह रही है। करणी माता तो नाथों की नाथ आईनाथ कही गईं। सारे मारवाड़ में नाथयोगियों के डेरे और धूणे स्थापित हैं। गुर्जर प्रतिहारों से शुरू हुए इस इतिहास में दूर दूर तक तत्कालीन शंकराचार्यों को नहीं खोजा जा सका है।
बप्पा रावल, राणा कुम्भा, सांगा, महाराणा प्रताप जैसे रत्नों की जन्मस्थली मेवाड़ प्राचीनकाल में शैव सम्प्रदाय का केन्द्र रहा है, एकलिंगनाथ की पीठ इसका प्रमाण है। तदन्तर यह शुद्धाद्वैत प्रवर्तक वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गी वल्लभ सम्प्रदाय का केंद्र बना, यही सम्प्रदाय प्राचीनकाल में विष्णुस्वामी कहलाता था। वल्लभ सम्प्रदाय की प्रधानपीठ नाथद्वारा में है। “जो दृढ़ राखे धर्म को ताहि राखे करतार” वाले मेवाड़ के 1000 वर्षों के लिपिबद्ध इतिहास में भी तत्कालीन शंकराचार्यों के उल्लेख नहीं पाए गए हैं। और धर्म के विषय में उन्हें सर्वोच्च माना गया हो इसकी गन्ध भी नहीं मिलती।
जयपुर का ढूंढाड़ क्षेत्र वैष्णवों और नाथों की तपस्थली रहा है। जयपुर में द्वैताद्वैत प्रवर्तक निम्बार्काचार्य का निम्बार्क सम्प्रदाय व चैतन्य महाप्रभु का गौड़ीय सम्प्रदाय प्रमुख रहा है। जयपुर के अधिकांश राजा निम्बार्क वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित थे, सवाई रामसिंह द्वितीय शैव थे। निम्बार्क सम्प्रदाय की प्रधान पीठ सलेमाबाद अजमेर के पास है। गौड़ीय सम्प्रदाय की गोविन्द देव, गोपीनाथ और मदन मोहन आदि प्रधानपीठ भी यहीं पर हैं। रामानन्द सम्प्रदाय के अनेक द्वारे प्राचीनकाल से यहाँ पर हैं। जयपुर के सम्पूर्ण इतिहास में तत्कालीन शंकराचार्यों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
मेवाड़ ने अपना धणी एकलिंगनाथ और श्रीनाथ को माना, जयपुर ने गोविन्ददेव को अपना धणी माना, जोधपुर बीकानेर तो करणी माँ के ही अधीन रहा है। राजपूताने के किसी राजा ने तत्कालीन शंकराचार्य को अपना सर्वोच्च धर्मगुरु माना हो ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। पूरे उत्तर भारत के गिनती के राजा भी शंकराचार्य को सर्वोच्च धर्मगुरु नहीं मानते थे। हिन्दूराष्ट्र के ये राजा परमधार्मिक व विद्वान रहे हैं। यदि ऐसी व्यवस्था शास्त्रों में होती तो कहीं कुछ तो प्रमाण मिलता।
राजस्थान की रियासतों का इतिहास सर्वश्रेष्ठ हिन्दू राज्यों का प्रत्यक्ष उदाहरण माना जाता है, जो पश्चिमी आक्रमणों से भारत की ढाल बनकर डेढ़ हजार वर्षों तक लड़ा, जहाँ एक से एक महाभागवत व धर्मधुरंधर राजा हुए। ऐसे ऐसे राजर्षि इस धरा ने पैदा किए जो स्वयं धर्मशास्त्रों के ज्ञान में प्रवीण थे। बप्पा रावल और तात ने तो संन्यास ही ले लिया था। नवीं शताब्दी में नागभट्ट द्वितीय ने ही सोमनाथ का पुनरुद्धार किया था, जिसे बाद में अरबों ने फिर से ध्वस्त किया। भारत के मन्दिर राजपूताने के राजाओं की लाश से गुजरकर ही ध्वस्त होते थे, पर जितनी बार गिरते उतनी बार ये वापिस उससे भी भव्यातिभव्य मन्दिर बना देते। उनमें से कोई भी तत्कालीन शंकराचार्य को सनातन धर्म के शासकों का शासक या सर्वोच्च धर्मगुरु मानता हो, या उनके कहे अनुसार राज्य चलाता हो ऐसा संकेत प्राप्त नहीं होता।
इस आशय का एक भी शिलालेख या ताम्रपट किसी मन्दिर में नहीं मिला है। राजस्थान की इतनी प्रतिष्ठित रियासतों में से एक भी तत्कालीन शंकराचार्य की अनुयायी नहीं थी। इस विराट इतिहास में किन्हीं तत्कालीन शंकराचार्य सम्बन्धी घटना के उल्लेख नहीं पाए गए हैं। मैंने बस राजस्थान की बात की है पर प्रायः पूरे उत्तर भारत में यही स्थिति थी, क्योंकि ज्योतिष्पीठ तो मध्यकाल में लगभग 300 वर्ष तक रिक्त ही थी, जब पीठ ही रिक्त रही तो सर्वोच्च पद कैसे हो सकता है। क्या उस समय सनातन धर्म अनाथ हो गया था? बल्कि इतिहास तो बताता है कि उस भयंकर मुगल काल में एक से एक सन्त उत्तर भारत में वैष्णव भक्ति की धारा बहाकर धर्म की रक्षा कर रहे थे। जो वृन्दावन आदि तीर्थ लुप्त भये, वे सब चैतन्य महाप्रभु सरीखे आचार्य चरणों ने प्रकटाए।
शंकराचार्य की एक महान परम्परा है। सन्त रूप में वे निश्चय ही सम्माननीय हैं। शंकराचार्य बहुत ही आदर के योग्य हैं, क्योंकि वे सन्त हैं। भारत सन्तों मुनियों का देश है, हम हमेशा सन्तों को पूजते हैं। हम सम्प्रदाय न देखकर त्याग तपस्या के मूर्तरूप आचार्यों को पूजने वाले लोग हैं। हम शांकर संन्यासियों, वैरागियों, सिद्धों, मुनियों, उपाध्यायों, योगियों, परमहंसों, महाभागवतों के उपासक हैं। पर कोई कहे हमारे अलावा किसी और को मत पूजो, हमें सर्वोच्च मानो, सनातन धर्म का ऐसा न तो स्वभाव है न प्रकृति है। जहाँ हज़ारों ऋषियों ने भिन्न भिन्न शास्त्रों में ही एक ही सत्य का प्रतिपादन किया, उन ऋषि ऋषि में भेद नहीं किया गया, फिर वो ऋषिपुत्र आचार्य आचार्य में भेद कर एक को सर्वोच्च, दूसरे को मध्यमोच्च, तीसरे को मध्यम, चौथे को अधम कहने का पाप कर सकते हैं? यह तो वह देश है जहाँ सन्तों की चरणधूल से नहाने को किसी भी साधन से बढ़कर माना गया। रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद्गृहाद्वा। न च्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना महत्पादरजोऽभिषेकम्॥ (श्रीमद्भागवत 5.12.12)
शांकर संन्यासी पूरे भारत में थे, परम सम्माननीय व पूज्य थे, पर शंकराचार्य भारत का सर्वोच्च पद नहीं था। इसका दर्शन कुम्भ की परम्पराओं से होता है कि कैसे वैष्णव अखाड़ों का जन्म हुआ। द्वारका ज्योतिष्पीठ आदि की सहस्राब्दी इतिहास में उल्लेखनीय मान्यता नहीं रही है। बहुत बाद में 19-20वीं सदी में इनका पुनर्संयोजन किया गया है। शंकराचार्य पद को शासकों का शासन शास्त्र में नहीं कहा गया। राजाओं द्वारा कितनी ही बार सोमनाथजी, विश्वनाथजी, श्रीरामजन्मभूमि, श्रीकृष्णजन्मभूमि, जगन्नाथ पुरी, हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन से लेकर गयाजी तक पुनरुद्धार के कार्य किए गए, कहीं भी किसी अभिलेख में तत्कालीन शंकराचार्य का उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। तो क्या पहले के सब राजा धर्मद्रोही थे? फिर ये नई खिचड़ी हिन्दू धर्म में कब पकने लगी? कोई प्रमाण तो हो, ढूंढने पर भी नहीं मिल रहा, कोई ढूंढने में ही मदद कर दे? जब प्रमाण ही नहीं तो असत्य का जोर शोर से प्रचार क्यों? या फिर इस सारे इतिहास को नकार दिया जाए और कुछ लोगों के दुष्प्रचार को सनातन समाज आँख मूँदकर मान ले?
शंकराचार्य को सर्वोच्च पद न तो शास्त्रों ने माना, न इतिहास ने माना, न रामानुजाचार्य ने माना, न विष्णुस्वामी सम्प्रदाय ने माना, न निम्बार्काचार्य ने माना, न वल्लभाचार्य ने माना, न मध्वाचार्य ने माना, न शैवों ने माना, न नाथों ने माना, न शाक्तों ने माना, न लिंगायतों ने माना, न वारकरियों ने माना, न राजाओं ने माना, न जनता ने माना, न हिन्दुओं ने माना। फिर ये कब सत्य सनातन धर्म का सर्वोच्च पद बन गया? आधुनिक काल के मीडिया संसाधनों द्वारा ऐसा प्रचार अधिक हुआ है। एक ही झूठ सौ बार बोल दिया जाए, तो सच लगने लगता है, पर सच तो यह है कि यह दावा निराधार, प्रमाणहीन, और राजनीति से प्रेरित है। पूरे 5000 वर्षों के दीर्घकालीन प्राप्त इतिहास के विरुद्ध है यह दावा।
फाह्यान, ह्वेनसांग से लेकर कालिदास, खुसरो, विद्यापति, चन्दरबरदाई से लेकर, मध्यकाल में समस्त साम्प्रदायिक आचार्य चरणों, तुलसीदास, अष्टछाप कवियों, षड्गोस्वामियों से लेकर, शंकरदेव, समर्थ रामदास आदि से लेकर, मुगलकाल के मुस्लिम इतिहासकारों से लेकर अंग्रेज जेम्स टॉड तक के और अन्य प्राचीन मध्यकालीन आधुनिक नाना प्रभृति साहित्यों में कहीं भी सनातन धर्म में पोप जैसे किसी सर्वोच्च पद और शंकराचार्य सर्वोच्च पद ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। श्रीरामचरितमानस, भक्तमाल, दासबोध आदि सामयिक प्रधान ग्रन्थों में भी शंकराचार्य पद की सर्वोच्चता का उल्लेख या संकेत नहीं मिलता। ज्योतिष्पीठ जो लगभग 300 साल रिक्त रही वह सनातन व्यवस्था कैसे कही जा सकती है, यह देशकालस्थिति सापेक्ष व्यवस्था थी जिसमें भी समय समय पर विपर्यय आया।
यह सर्वोच्च धर्मगुरु 20वीं सदी की राजनीति की उपज है। ऐसा कोई तथाकथित सर्वोच्च पद अखण्ड भारत हिन्दूराष्ट्र में कभी भी नहीं था। दक्षिण में श्रृंगेरी शांकर पीठ, काँचीपीठ, तिरुपति, उडुपी पीठ आदि सर्वोच्च रहे। भारत में शैव शाक्तों सौरों वैष्णवों की अनेक सर्वोच्च पीठें थीं, भारत के नगर नगर की सर्वोच्च पीठें हैं। जहाँ जो सम्प्रदाय था, जहाँ जो बड़ा सिद्ध सन्त था, वहाँ वही सर्वोच्च था। चाहे वे शंकराचार्य हों या रामानुजाचार्य या नाथ योगी या वल्लभाचार्य या निम्बार्काचार्य या मध्वाचार्य या गौड़ीय आचार्य या शाक्त शैव नाथ आदि नाना सम्प्रदायों के पूज्य सन्त सभी आचार्य चरण हिन्दुओं के सर्वोच्च रहे हैं।
श्मशान में धूनी जमाकर रहने वाला सिद्ध भी सर्वोच्च था, जंगल में तपस्या करने वाला तपस्वी संन्यासी भी सर्वोच्च था, तप ज्ञान सम्पन्न 5 वर्ष का बटुक ब्राह्मण भी सर्वोच्च था, भील किरात चारण जाति में उत्पन्न भागवत भी सर्वोच्च थे, राजा महाराजा भी ऐसे तपोधन्य महापुरुष सन्तों के चरणों में पड़े रहते थे, पीठ या पदनाम के सिंहासन पर बैठने से सन्त की सर्वोच्चता कभी भी सनातन धर्म में नहीं थी। पूरे भारत के सनातन धर्म का सर्वोच्च धर्मगुरु शंकराचार्य को कहना पूर्णतः शास्त्र विरुद्ध है, इतिहास से भी इसका कोई लेना देना नहीं है, व्यवहारिकता से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है, भारतीय संस्कृति की आत्मा में ऐसी कोई छाप नहीं है, यह एक घातक मिथक है, यहाँ मिथक का अर्थ मिथ्या है।
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अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर श्रीराम लला विराजमान के भव्य मंदिर का निर्माण यूं ही नहीं हुआ है। लाखों सन्तों ने 5 शताब्दियों तक “श्रीराम जय राम जय जय राम” इस विजय मन्त्र के अरबों बार जप करके अपने घनीभूत तप से उस भूमि से आक्रान्ताओं के चिह्न मात्र का उच्छेद कर दिया तब जाकर यह परम सौभाग्यशाली क्षण आया है जब नराकृति परब्रह्म स्वराट पुरुष भगवान् श्रीरामलला होहि बालक सुरभूपा रूप में अपनी स्वर्गादपि गरीयसी जन्मभूमि पर विराजमान होने जा रहे हैं। महाभारत काल के बाद 5300 वर्षों के आज तक के इतिहास के सबसे बड़े धार्मिक महामहोत्सव का साक्षी सनातन हिन्दू समाज बनने जा रहा है। यह एक पृथ्वी, एक परिवार की सनातन कल्याणकारी अवधारणा है। यही वह ऊर्जा है जिसको गोस्वामी तुलसी दास सीयराम मय सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरि जुग पानी के भाव में गाते हैं और सभी से गाने को भी कहते हैं। ।।जयसियाराम।।
(लेखक संस्कृति पर्व पत्रिका के संपादक और भारत संस्कृति न्यास के अध्यक्ष हैं)
मो. 9450887186
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