रवींद्र प्रसाद मिश्र
प्रयागराज। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर आज पूरे देश में कई कार्यक्रम किए गए। महिला अधिकारों, उनकी स्थितियों पर चर्चाएं हुईं। मीडिया, सोशल मीडिया में भी प्रतिभावन महिलाओं की चर्चाएं हुई। इन सबके बीच चर्चाओं से ऐसी महिलाएं गायब रहीं, जो आज भी बदत्तर जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं। समाज के इसी दोहरे रवैए का नतीजा है कि लाख प्रयासों के बावजूद भी समानता नहीं आ पा रही है। जाने अनजाने हम सभी करते और होते हैं। महिला दिवस पर उन महिलाओं की चर्चा न होना कितना दुर्भाग्य पूर्ण माना जाएगा, जिन्हें दो जून की रोटी जुटाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ रही हैं।
क्या समाज इन्हें अपना हिस्सा नहीं मानता
क्या ऐसी महिलाएं समाज की हिस्सा नहीं हैं या फिर समाज उन्हें अपना हिस्सा नहीं मानता? दिखावे और हकीकत के इस अंतर को समझना होगा। क्योंकि दिखावे में सम्मान की बात होती है और हकीकत में हक की बात होती है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हर क्षेत्र से दिखावा करते हुए अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ योगदान करने वाली महिलाओं का सम्मान किया गया। सम्मान करना भी चाहिए क्योंकि वे महिलाएं सम्मान की पात्र हैं। उन्होंने सामाजिक बेड़ियों को तोड़ते हुए अपने संघर्ष के बदौलत वह मुकाम हासिल किया, जिसपर न सिर्फ उनके माता, पिता नाज है, बल्कि देश भी गौरांवित महसूस करता है।
ये बहस का हिस्सा कब बनेंगी
लेकिन महिलाओं पर बीच बहस से गरीब, मजबूर, बेबस, बेसाहरा महिलाओं का गायब होना बेहद शर्मनाक है। क्योंकि इनके हक की बात न करके हम इनके साथ नाइंसाफी कर रहे है। आज हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां सच गुम हो जाता है और झूठ बिक जाता है। आजादी के इतने वर्षों बाद मजदूरों की स्थिति अगर बदत्तर बनी हुई है तो इसके लिए जितना जिम्मेदार सरकार है उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदार यह समाज भी है। क्योंकि हम उन्हें देखना पसंद ही नहीं करते, जिन्हें सबसे ज्यादा हमारे सहयोग की जरूरत है।
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जिंदगी कैद और मौत मुक्ति
ईंट भट्ठों पर काम करने वालों की जिंदगी ऐसी हो गई है, जैसे जिंदगी कैद हो और मौत मुक्ति। शहर के चौराहों और नुक्कड़ पर गोद में बच्चा लिए भीख मांगती महिलाएं भी इसी समाज का हिस्सा हैं। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन आधिकारियों और माननीयों को इनके संरक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए है। वह न तो इन्हें भीख में एक रुपया देते हैं और न ही इन्हें देखना पसंद करते हैं। ऐसे में हालात कैसे बदलेंगे यह समझ से परे है। वूमेन डे, मदर्स डे और फादर्स डे मनाने से अगर हालात बदलते, तो देश में वृद्वा आश्रमों की संख्या दिन बा दिन न बढ़ती। कितना अच्छा होता कि लोग सम्मान की जगह हक की बात करते, जिससे उन महिलाओं को भी पता चलता कि उनके लिए भी कोई विशेष दिन है।
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