भारतीय सनातन वैदिक जीवन संस्कृति में मांस कहीं भी भोज्य नहीं है। गाय इस सृष्टि में पृथ्वी के सम्पूर्ण स्वरूप का सुलभ स्वरूप है। कोई भी व्यक्ति समूची पृथ्वी को अपने घर मे कभी नहीं रख सकता इसलिए सृष्टि कर्ता ने गाय के रूप में एक ऐसी रचना की जिसको सभी मनुष्यों के लिए सुलभ किया जा सके। गाय केवल एक पशु भर नहीं है बल्कि प्रत्येक मनुष्य को आरोग्य, सम्पन्न और ऐश्वर्य पूर्ण जीवन सुलभ कराने का एकमात्र साधन है। पश्चिमी साजिशों ने भारतीय सनातन जीवन के सबसे महत्वपूर्ण इस साधन को ही नष्ट कर दिया।
हमारे शास्त्रों की गलत और षड्यंत्र पूर्ण व्याख्या कर ऐसी विकृति का प्रसार कर दिया, कि आज बहुत बड़ी उपाधियां प्राप्त कर खुद को बहुत बड़े विद्वान के रूप में स्थापित कुछ कथित ज्ञानी हिन्दू भी इस कुतर्क के साथ आपसे उलझ जाते हैं, कि सनातन शास्त्रों में मांस का भोजन के रूप में उल्लेख है। जबकि वास्तविकता यह है कि इन कथित विद्वानों के ज्ञान का कोई आधार ही नहीं है। पश्चिमी षड्यंत्रकारियों द्वारा किये गए अनुवाद की साजिशों के शिकार ऐसे कथित ज्ञानियों की भारत में भी भरमार है। ऐसे सभी को अब शिक्षित करना संभव भी नहीं, लेकिन यह जरूरी है कि इन विन्दुओं को एक एक कर देखा जाय।
ऐसे लोग मांस भोजन के लिए शास्त्रों का अपने अनुसार विकृत अर्थ लगाते हैं। विशेषकर भारत में वामपन्थियों का उद्देश्य है कि भारत में गो पूजा परम्परा नष्ट करने के लिए गोमांस भोजन की परम्परा दिखायी जाय। उनको केवल तीन शब्द अलग अलग स्थानों से खोज कर जोड़ देना है-गो, मांस, भोजन। विभिन्न प्रसंगों में इनके क्या अर्थ हैं, उनसे इनको कोई मतलब नहीं है। ये तीन शब्द मिलते ही उनके जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया।
1. यज्ञ में पशुबलि-
(1) मांसाहार के लिए मिथ्या अर्थ-यज्ञ में उपरिचर वसु ने पशु बलि का समर्थन किया था जिस पर ऋषियों ने उनको शाप दिया था।
महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय 337-
देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुना पक्षसंश्रयात्॥13॥
छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्तं वचस्तदा।
कुपितास्ते ततः सर्वे मुनयः सूर्यवर्चसः॥14॥
ऊचुर्वसुं विमानस्थं देवपक्षार्थविदिनम्।
सुरपक्षो गृहीतस्ते यस्मात् तस्माद दिवः पत॥15॥
अद्यप्रभृति ते याजन्नाकाशे विहता गतिः।
अस्मच्छापाभिघातेन महीं भित्वा प्रवेक्ष्यसि॥16॥
यहां अज का अर्थ बीजी पुरुष कहा गया है, जिसकी यज्ञ द्वारा उपासना होती है।
(2) रन्तिदेव पर दैनिक गोहत्या का आक्षेप-महाभारत, द्रोण पर्व, अध्याय 67-
सांकृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमतिथिर्वसेत्।
आलभ्यन्त तदा गावः सहस्राण्येकविंशतिः॥14॥
= जो भी अतिथि संकृति पुत्र रन्तिदेव के यहाँ रात में आता था, उसे 21,००० गौ छू कर दान करते थे।
कोई भी 21,००० गौ एक बार क्या, जीवन भर में नहीं खा सकता है। यहां गो शब्द सम्पत्ति की माप भी है। मुद्राओं के नाम बदलते रहे हैं। उनका स्थायी नाम था-गो, धेनु। किसी को एक लाख गाय दी जायेगी तो वह उनको रख नहीं पायेगा, न देख भाल कर सकता है। यहाँ गो बड़ी मुद्रा (स्वर्ण), धेनु छोटी मुद्रा (रजत), निष्क सबसे छोटी मुद्रा है। निष्क से पंजाबी में निक्का या धातु नाम निकेल हुआ है। निष्क मिलना अच्छा है, अतः नीक का अर्थ अच्छा है।
अन्नं वै गौः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3/9/8/3 आदि)
इन्द्र मूर्ति 1० धेनु में खरीदने का उल्लेख है-
क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः। (ऋक, 4/24/10)
21००० गो या स्वर्ण मुद्रा देने के बाद उनको अच्छा भोजन कराते थे-
तत्र स्म सूदाः क्रोशन्ति सुमृष्ट मणिकुण्डलाः।
सूपं भूयिष्ठमश्नीध्वं नाद्य भोज्यं यथा पुरा॥
वहाँ कुण्डल, मणि पहने रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे-आप लोग खूब दाल भात खाइये। आज का भोजन पहले जैसा नहीँ है, उससे अच्छा है।
यही वर्णन शान्ति पर्व (67/127-128) में भी है।
अनुशासन पर्व (115/63-67) में बहुत से राजाओं की सूची है जिन्होंने तथा कई अन्य महान् राजाओं ने कभी मांस नहीँ खाया था। इनमें रन्तिदेव का भी नाम है-
श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च।
रैवते रन्तिदेवेन वसुना, सृञ्जयेन च॥63॥
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र कृपेण भरतेन च।
दुष्यन्तेन करूषेण रामालर्कनरैस्तथा॥64॥
विरूपश्वेन निमिना जनकेन च धीमता।
ऐलेन पृथुना चैव वीरसेनेन चैव ह॥65॥
इक्ष्वाकुणा शम्भुना च श्वेतेन सगरेण च।
अजेन धुन्धुना चैव तथैव च सुबाहुना॥66॥
हर्यश्वेन च राजेन्द्र क्षुपेण भरतेन च।
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र पुरा मांसं न भक्षितम॥67॥
श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सृञ्जय, अन्यान्य नरेश, कृप, भरत, दुष्यन्त, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, बुद्धिमान जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत-इन सबने तथा अन्य राजाओं ने कभी मांस नहीँ खाया था।
(3) भगवान् राम आदि कई राजाओं का ऊपर उल्लेख है कि उन लोगों ने जीवन में कभी मांस नहीं खाया।
(4) वामपन्थी झूठ-उत्तर रामचरित में एक प्रसंग है कि वसिष्ट दशरथ से मिलने आये तो उनको वत्सतरी दी गयी। वत्सतरी के बाद मडमड ध्वनि हुई। इसका अर्थ किया गया कि २ वर्ष की गाय दी गयी जिसे देखते ही वसिष्ठ ने उसे खाना आरम्भ कर दिया जिसकी हड्डियों के टूटने से मडमड शब्द हुआ। उसके बाद दशरथ ने कहा कि मधुपर्क हो गया अब प्रसंग पर चर्चा करें। यहां स्पष्टतः वत्सतरी का अर्थ मधुपर्क है जो सभी अतिथियों को दिया जाता है। अतिथि यात्रा में थके होने से उनको मीठा तथा जल की कमी होने से जल देते हैं।
छोटे बच्चों को भी पेट खराब होने पर नमक-चीनी का घोल देते हैं। खाली पेट में मधुपर्क जाने पर हलका शब्द होता है। कभी कभी जोर की डकार भी होती है। गाय को खाना बाघ या मगरमच्छ के लिये भी सम्भव नहीं है। उसके पैर में मनुश्य की हड्डी भले ही टूट जाय, मनुष्य से मुंह में नहीं ले सकता।
इसी प्रकार राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक वोल्गा से गंगा में लिखा है कि ऋषि लोग घोड़े की हड्डी का सूप पीते थे। यह श्वेताश्वतर उपनिषद् के नाम का मूर्खतापूर्ण अनुवाद है। अश्व= घोड़ा, उसका श्वेत भाग= हड्डी, तर= सूप। वास्तव में इस उपनिषद् में घोड़े की चर्चा ही नहीं है। यहां सूर्य या वरुण को अश्व कहा है, उससे बड़े ब्रह्म की व्याख्या होने से यह श्वेताश्वतर है।
२. शमिता-
यज्ञ में पशु का आलभन करते हैं-उसका पीठ, कन्धा आदि छूते है। इसे शमिता कहते हैं, अर्थात् शान्त करने वाला। शान्त करने के लिए हत्या नहीँ की जाती है। पर इसका अर्थ किया जाता है कि पशु का कन्धा आदि छू कर देखते हैं कि कहाँ से उसका मांस काटना अच्छा होगा। आजकल भी घुड़सवारी सिखाई जाती है कि घोड़े पर चढ़ने के पहले उसकी गर्दन तथा कन्धा थपथपाना चाहिए। इससे वह प्रसन्न हो कर अच्छी तरह दौड़ता है। बच्चों की भी प्रशंसा के लिए उनकी पीठ थपथपाते हैं, यद्यपि वे भाषा भी समझ सकते हैं। यही आलभन है।
शिष्य भी पहले गुरु को जा कर नमस्कार करता है तो गुरु उसके कन्धे पर हाथ रख कर आलभन करते हैं। यदि आलभन द्वारा उसकी हत्या करेंगे तो शिक्षा कौन लेगा? गुरु को भी फांसी होगी। हर अवसर पर यदि कोई पैर छूकर नमस्कार करे तो उसकी पीठ पर ही हाथ रख कर ही आशीर्वाद दिया जाता है।
शमितार उपेतन यज्ञं देवेभिरिन्वितम्। पाशात् पशुं प्र मुञ्चत बन्धाद् यज्ञपतिं परि। (तैत्तिरीय सं, 3/1/4/1०)। प्राजापत्या वै पशवः तेषां रुद्रो अधिपतिः यत् एताभ्यां उपाकरोति, ताभ्यां एव एनं प्रतिप्रोच्या आलभत आत्मनो अनाव्रस्काय द्वाभ्यां उपाकरोति
द्विपाद् यजमानः प्रतिष्ठित्या उपाकृत्य पञ्च जुहोति। पाङ्क्ताः पशवः पशून् एव अवरुन्धे, मृत्यवे वा एष नीयते यत् पसुः तं यत् अन्वारभेत प्रमायुको यजमानः स्यात् नाना प्राणो यजमानस्य पशूनेत्याह व्यावृत्यै॥1॥
यत् पशुः मायुं अकृत इति जुहोति शान्त्यै शमितार उपेनेत्याह यथा यजुः एव एतत् वपायां वा आह्नियमाणायां अग्नेः मेधो अपक्रामति त्वां उ ते दधिरे हव्यवाहमिति वपामपि जुहोति अग्नेः एव मेधं अवरुन्धे अथो शृतत्वाय पुरस्तात् स्वाहा कृतयो वा अन्ये देवा उपरिष्टात् स्वाहा कृतयो अन्ये स्वाहा देवेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा इति अभितो वपां जुहोति॥2॥ (तैत्तिरीय सं, 3/1/5/1-2)
इसका आशय है कि प्रजापति से पशु हुए, उनका स्वामी रुद्र है (पशुपति)। उनको 2 मन्त्रों से तैयार करता है जिससे उनको क्षति नहीं पहुंचे। यजमान के 2 पाद (रंगाचारी कश्यप के अनुसार चेतना के 2 स्तर) हैं, जो उसके आधार हैं। उसके बाद वह 5 पशुओं का प्रयोग करता है। पशु को कष्ट नहीं होना चाहिए। उनकी शान्ति के लिए मन्त्र पढ़ता है। इसकी त्रुटिपूर्ण नकल कुरान में है, पशु को मारते समय मन्त्र पढ़ते हैं। यहां, 5 प्रकार के पशुओं के कै अर्थ हैं, जिनकी व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों में है।
देव, पिता, माता आदि को शमिता कहा गया है। स्पष्टतः उनका उद्देश्य अपने सन्तान का पालन है, हत्या नहीं- दैव्याः शमितार उत मनुष्या आरभध्वम्।… उपनयत् मेध्या दुरः। अन्वेनं माता मनयताम्। अनुं पिता।… उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात्। अध्रिगो शमीध्वं शमीध्वं अध्रिगो। अध्रिगुश्च अपापश्च उभौ देवानां शमितारौ। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3/6/6/4)
इसी प्रकार उपनयन, विवाह आदि में सन्तान माता-पिता से अलग होती है, तो माता-पिता को कष्ट की शान्ति करायी जाती है, सन्तान को आश्वासन देते हैं कि दैव सहायक होगा। पहले माता को सान्त्वना दी जाती है, जिसे लोकभाषा में इमली घोटाना कहते हैं। शक्ति का प्रयोग या खर्च होना आंशिक मृत्यु है। यदि पशु नहीं रहेगा तो प्रयोग किसका होगा-
मृत्युः तत् अभवत् धाता शमिता उग्रः विशां पतिः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3/12/9/6)
अथर्व सं (10/9) शतौदना गौ के विषय में है। गौ यज्ञ या निर्माण स्वरूप है-(1) निर्माण स्थान (शरीर, वेदी), (2) गति या क्रिया (गम् = गति), (3) स्रोत तथा निर्मित पदार्थ। गौ पशु भी मूल यज्ञ कृषि का साधन है तथा उसका दुग्ध भोजन है। इसके बिना जीवन नहीं चल सकता है अतः गौ पशु तथा यज्ञ दोनों अवध्य हैं (यजुर्वेद प्रथ सूक्त में अघ्न्या)। 100 ओदन (पकाया चावल, भात) के कई अर्थ हैं-(1) 100 प्रकार की निर्माण सामग्री, (2) शरीर में हृदय से निकली 100 नाड़ियां (कठोपनिषद्, 2/3/16), (3) या लोकों के निर्माण के प्रत्येक स्तर पर आनन्द के 100 भाग में 1 भाग का उपयोग जिससे मनुष्य लोक से आरम्भ कर उच्च लोकों में आनन्द 100-100 गुणा बढ़ता जाता है (तैत्तिरीय उपनिषद्, 2/8)
हिरण्य ज्योतिषं कृत्वा यो ददाति शतौदनाम्। यो देवि शमितारः पक्तारो ये च ते जनाः॥7॥
घृतं प्रोक्षन्ती सुभगा देवी देवान् गमिष्यति। पक्तारमघ्न्ये मा हिंसीः दिवं प्रेहि शतौदने॥11॥ (अथर्व, 10/9)
कुछ वनस्पति शान्त करती हैं, उनको भी शमिता कहा है-
वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन। (ऋक्, 10/11/8, अथर्व, 5/12/12, वाज. यजु, 29/35, मैत्रायणी सं, 4/13/3, काण्व सं, 16/20, तैत्तिरीय ब्रा, 3/6/3/4) = गार्हपत्य अग्नि (वनस्पतिः) दक्षिणाग्नि (शमिता) और आहवनीय अग्नि (देवः अग्निः) मिष्ट और घृत के साथ (मधुना घृतेन) हवि का आस्वादन करावे (हव्यं स्वदन्तु)।
शान्तिपूर्वक २ हाथों से निर्माण करना भी शमिता है-
सोमस्य या शमितरा सुहस्ता (ऋक्, 5/43/4)
निर्माण के क्रम अश्वत्थ हैं (ऊर्ध्व मूल अश्वत्थ-गीता, 15/1), शमी वृक्ष से भी शान्ति मिलती है, अतः शमी नाम है। पत्नी में दोनों गुण होते हैं अतः कहा है कि शमी और अश्वत्थ पर चढ़ो-शमीमश्वत्थमारूढ (अथर्व, 6/11/1)
व्यवसाय या यज्ञ भी शमी है जिससे कर्ता सूर्य जैसा तेजस्वी होता है-
विष्ट्वी शमी तरणित्वेन वाधतः (ऋक्, 1/110/4)
शमी से यज्ञ करने पर शान्ति होती है-
शमीभिर्यज्ञमाशत (ऋक्, 1/20/2)
इच्छाग्नयः शम्या ये सुकृत्यया (ऋक्, 1/83/4, अथर्व, 20/25/4)
यज्ञ के लिए बिना बाधा लगातार क्रिया चाहिये, जिसे अध्रिगु कहा है (निरुक्त, 5/11) = मन्त्र, अग्नि, इन्द्र आदि। बाधा दूर करना शमिध्वम् है-
अध्रिगो शमीध्वं सुशमि शमीध्वं शमीध्वमध्रिगो। (मैत्रायणी सं, 4/13/4, काण्व सं, 16/21, ऐतरेय ब्रा, 2/7/11, तैत्तिरीय ब्रा, 3/6/6/4)
बुद्धि के आवरण या कर्म बन्धन भी शमी द्वारा काटे जाते हैं (गीता, १५/२)- धिया नहुषि अस्य बोधताम् (ऋक्, १०/९२/१२)-यहां बुद्धि प्रेरित करने वाला नहुष (तन्त्र का कुण्डलिनी?) कहा है। जीवन यज्ञ पत्नी के साथ शान्ति पूर्वक (शंयु) रहने से होता है-
शंयुना पत्नी संयाजान् (वाज यजु, १९/२९) अथा नः शं योरपो दधात (ऋक्, १०/१५/४, वाज यजु, १९/५५, मैत्रायणी सं, ४/१०/६, काण्व सं, २१/१४) तच्छं योरावृणीमहे। गातुं यज्ञाय यज्ञपतये। (ऋक् खिल, १०/१९१/१५, तैत्तिरीय सं, २/६/१०/३, मैत्रायनी सं, ४/ १३/१०, शतपथ ब्रा, १/९/१/२७, तैत्तिरीय ब्रा, ३/५/११/१, तैत्तिरीय आरण्यक, १/९/७) = शंयु के निकट प्रार्थना करते हैं कि यज्ञ का देवों के प्रति गमन हो (गातु यज्ञाय) और यजमान का देवों के प्रति गमन हो (गातुं यज्ञ पतये)। यही गीता (३/१०) में कहा है कि देव (आन्तरिक और बाह्य प्राण) और मनुष्य यज्ञ द्वारा परस्पर की उन्नति करते हैं।
शंयु को बृहस्पति का पुत्र कहा है, अर्थात् बुद्धि के अभ्यास से शान्ति होती है।
३. यज्ञ, पशु, मेध- (१) ब्रह्म, कर्म, यज्ञ-(गीता, ८/१-४)-ब्रह्म सब कुछ है।
जो गति है, वह कर्म है। चक्रीय कर्म में आवश्यक उत्पादन यज्ञ है। सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ (गीता ३/१०)
एवं प्रवर्तितं चक्रं … (गीता ३/१६) यज्ञ चक्र (गीता, ३/१४-१६) अक्षर-ब्रह्म-कर्म-यज्ञ-पर्जन्य-अन्न-भूत-(भूत के अक्षर रूप से पुनः आरम्भ। (२) निर्माण, उत्पाद-निर्माण के लिए २ प्रकार का मिश्रण होता ह-
अग्नि या अन्नाद – भोक्ता
सोम = आकाश में बिखरा पदार्थ, भुक्त, अन्न। पाक ४ प्रकार से है-१. अग्नि + अग्नि, २, अग्नि + सोम (क) पूरा सोम इन्धन कि तरह जलता है। (ख) अग्नि ही सोम की तरह फैल जाता है। ३. सोम + सोम-जैसे गैस + गैस, वायु + जल (मेघ), जल + ठोस। २ प्रकार का मिश्रण वेद में वराह (जल स्थल का पशु) या मेघ कहा गया है।
(३) पशुमेध-१. पशु-कोई भी दृश्य पदार्थ (पश्य = देखना)। प्रजापति द्वारा दृश्य जगत् में जो कुछ भी निर्माण हुआ वह पशु है। यह ५ प्रकार के हैं-१’ पुरुष (मनुष्य, जो पुर या किसी रचना में रहे), २. अश्व (घोड़ा, चलाने वाली ऊर्जा), ३. गौ (निर्माण क्रिया, गति, स्थान), ४. अवि (भेड़ा, अग्र गति), ५. अज (बकरा, अजन्मा, सनातन निर्माण चक्र)।
(अग्निः) एतान् पञ्च पशून् अपश्यत्। पुरुषं अश्वं गां, अविं, अजं-यद् अपश्यत्, तस्मात् एते पशवः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/१/२)
देवा यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥१५॥ तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥८॥ (पुरुष सूक्त)
मेध-चेतन तत्त्व पुरुष २ प्रकार से निर्माण करता है-
२. मेध (विचार, योजना) यह क्रिया करने की शक्ति मेधा = बुद्धि है।
मेधृ मेधा-हिंसनयोः संगमे च (पाणिनीय धातु पाठ, १/६११)-कई विचारों को आत्मसात् (हिंसा) कर योजना (योग, संगम) होती है।
३. तप-कर्म, श्रम। यत् सप्तान्नानि मेधया तपसा अजनयत् पिता। इति मेधया हि तपसा अजनयत् पिता। (शतपथ ब्राह्मण, १४/४/३/१, बृहदारण्यक उपनिषद्, १/५/१)
यहां निर्माण करने वाला चेतन तत्त्व पुरुष या पिता है। निर्माण का स्थान माता है (मा माने, माप करना, माता)।
यो नः पिता यो जनिता विधाता। (ऋक्, १०/८२/३, वाज. यजु, १७/२७, काण्व सं, १८/१, तैत्तिरीय सं, ४/६/२/१) निर्माण के लिये प्रयुक्त बुद्धि मेधा ह, उसके लिए किसी वस्तु का प्रयोग मेध है। जिन वस्तुओं का प्रयोग निर्माण के लिए हो सकता है, वे मेध्य या ग्राम्य पशु हैं। जो उपलब्ध या उपयोगी नहीं हैं वे आरण्य पशु हैं।
विश्वरूपं वै पशूनां रूपम् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ५/४/६) पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥६॥ (पुरुष सूक्त) सप्त ग्राम्याः पशवः सप्तारण्याः (शतपथ ब्राह्मण, ३/८/४/१६, ९/५/२/८) अस्मै वै लोकाय ग्राम्याः पशवः आलभ्यन्ते। अमुष्मा आरण्याः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/९/३/१)
४. अन्न, मद्य, मांस-
(१) जो प्राणियों द्वारा खाया जाय वह अन्न है (अद् भोजने)-
अद्यते अत्ति च भूतानि। तस्मात् अन्नं तदुच्यते। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/२)
अद्भ्यो वा अन्नं जायते (तैत्तिरीय आरण्यक, ८/२) = जल (या उसके जैसे फैले पदार्थ) से अन्न होता है। अन्न पशु है (केवल देखता है, कर नहीं शकता)-अन्नमु वै पशवः (जैमिनीय उपनिषद्, ३/१४१)।
(२). मद-पदार्थों का सत्त्व (सत्) अन्न है। यह आनन्द देता है। रसो वै मदः (जैमिनीय उपनिषद्, १/२१५, २१६, ३/२८, १५९, २२२, २९५) दृश्य रूप ऋक् है, उसका प्रभाव साम या रस है- यो वा ऋचि मदो यः सामन् रसो वै सः (माध्य. शतपथ, ४/३/२५) जो भी स्वादिष्ट है तथा ऊर्जा देता है वह मद है- मदन्तीभिः प्रोक्षति। तेज एवास्मिन् दधाति। (तैत्तिरीय आरण्यक, ५/४/१)। मदिन्तम इति स्वादिष्ट इत्येवैतदाह। (माध्य. शतपथ, ३/८/३/२५)।
(३) मांस-उत्तम अन्न जो आकाश की तरह फैला विराट् (पृथ्वी पर उत्पन्न) है-
नभो मांसानि (तैत्तिरीय सं. ७/५/२५/१) मांसानि विराट् (छन्दः) जैमिनीय उपनिषद् (२/५८)। एतदु ह वै परममन्नाद्यं यन्मांसम् (माध्य. शतपथ, ११/७/१/३)।
(४) मद्य, मांस, काम का निषेध-न मांसं समश्नीयात्। न स्त्रियं उपेयात्। यन्मांसं अश्नीयात्, यत् स्त्रियं उपेयात्, निर्वीर्यः स्यात्। न एनं अग्निं उपनमेत्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/१/९/७-८)। शरीर या फल दोनों का कोमल भाग मांस है। पशु शरीर के कोमल भाग को मांस इसलिए कहते हैं कि यह कहता है कि मैं उसे (सः) खाऊंगा, जो मुझे (मां) खाता है-
मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम्।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥ (मनु स्मृति, ५/५५)
बकरे का मांस अधिक खाने वाले प्रायः उसके जैसी दाढ़ी भी रखते हैं।
मद्य, मांस, मैथुन मनुष्य की प्रवृत्ति है। उसे पूरी तरह बन्द नहीं किया जा सकता है। किन्तु कल्याण तथा उन्नति के लिए उसे सीमित और नियन्त्रित करना चाहिए।
न मांस भक्षणे दोषः न मद्ये न च मैथुने।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥ (मनुस्मृति, ५/५६)
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मनु स्मृति (५/३९-४१) के अनुसार केवल यज्ञ के लिए पशु बलि दी जा सकती है। यहां यज्ञ का अर्थ उपयोगी निर्माण है, अनावश्यक बलि नहीं होती है। बलि का अर्थ हत्या नहीं, उसकी ऊर्जा या श्राम् का उपयोग है। मरने पर बेकार हो जायेगा।
(५) बाइबिल, कुरान में निषेध-
Genesis-(1/29) And God said, Behold, I have given you every herb bearing seed, which [is] upon the face of all the earth, and every tree, in the which [is] the fruit of a tree yielding seed; to you it shall be for meat.
Koran (2/61) And when you said, Musa , we will no longer confine ourselves to a single food: So, pray for us to your Lord that He may bring forth for us of what the earth grows — of its vegetable, its cucumbers, its wheat, its lentils and its onions. He said, do you want to take what is inferior in exchange for what is better?
Koran (2/174) also prohibits eating of-Khinjar = which is seen. But it is taken only as swine.
एक प्रकार से यहां वही कहा है जो वेद या स्मृति में लिखा है। बाइबिल (जेनेसिस, १/२९) या कुरान (२/६१) में कहा है कि पृथ्वी से जो निकले वही खाना चाहिये। इसका अर्थ है कि कृषि उत्पाद ही खाना चाहिये। जैन लोग इसका विशेष अर्थ करते हैं कि केवल सतह से ऊपर का अन्न खाना चाहिए, आलू आदि नीचे की जड़ नहीं। जड़ से पुनः उत्पत्ति होती है, अतः उत्पादन स्रोत नहीं बन्द करना है, या उसके साथ सूक्ष्म जीव रहते हैं जिनकी हिंसा नहीं करनी है। अपने लोभ के कारण बाइबिल, कुरान में इसी का विपरीत अर्थ किया जाता है कि पृथ्वी के ऊपर जो कुछ है वह खाया जा सकता है। मनुस्मृति में पूर्ण निषेध मना किया है, क्योंकि सभी मानते नहीं है। कुरान में पूर्ण निषेध के कारण सदा मांस मैथुन की योजना बनाते रहते हैं।
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६. मेध यज्ञ-
(१) अश्वमेध- किसी जीव से अश्रु की तरह पिण्ड से तेज निकलता है, अतः उस तेज को अश्रु या परोक्ष में अश्व कहते हैं। जैसे पशु अश्व गाड़ी खींचता है, उसी प्रकार किसी भी कार्य के लिऊर्जा को अश्व कहते हैं। इंजन की शक्ति की माप भी अश्वशक्ति कहते हैं।
प्रजापतेरक्ष्यश्वयत्। तत्पराततत्ततोऽश्वः समभवद्, यदश्वयत् तत् अश्वस्य अश्वत्वम्। (शतपथ ब्राह्मण, १३/३/१/१)
वारुणो वा अश्वः। (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/२/१८) सौर्यो वा अश्वः (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ३/१९) अश्वो मनुष्यान् (अवहत्)- (शतपथ ब्राह्मण, १०/६/४/१)। प्राचीन साहित्य में कई रथों में हजारों अश्व लगाने का वर्णन है, जो भौतिक रूप में किसी गाड़ी में लगाना असम्भव है। ऋक् (८/४६/२९) में ६०,००० अश्वों के रथ का वर्णन है। महाभारत, वन पर्व (४२/२-७) में इन्द्र के रथ में १०,००० अश्व का उल्लेख है। महाभारत, आदि पर्व (२२४/१०-१५) के अनुसार अर्जुन के दिव्य रथ में दिव्य गान्धर्व अश्व थे जिनसे तेज प्रकाश निकलता था। महाभारत, द्रोण पर्व (१७५/१३) के अनुसार घटोत्कच के रथ में सैकड़ों घोड़े थे तथा वह आकाश में चल सकता था।
आकाश में ऊर्जा का स्रोत सूर्य ही अश्व है। सूर्य का स्रोत वरुण (आकाशगंगा का विरल अप्) भी अश्व कहा है। पृथ्वी पर वायु अश्व है जो मेघ को चलाता है, तूफान लाता है या समुद्र की पाल-नौका को चलने की शक्ति देता है। पूर्व एशिया के जापान-कोरिया को भद्राश्व कहते थे (भारत से ९० अंश पूर्व), क्योंकि वहां समुद्री वायु की गति कम होती है (आधुनिक भूगोल में-horse latitude)।
किसी देश में परिवहन और सञ्चार अश्व है। राजा का कर्तव्य है इनकी बाधा दूर करना, जिसे अश्वमेध कहते हैं। नाटकीय रूप से घोड़ा पूरे देश में घूमता रहता है, जिसके पीछे राजा सेना ले कर चलते हैं। बिना खाये पिये घोड़ा नहीं घूम सकता है, न उसको पता है कि अगले देश में जाने का मार्ग क्या है। उसके पीछे राजा भी सेना ले कर नहीं चल सकता, लाखों की सेना एक साथ नहीं चल सकती है। उनको रोकने के लिए अन्य देश का राजा चेक गेट पर नहीं बैठा रहेगा।
मनुष्य शरीर में नाड़ी तथा नस में प्राण का सञ्चार अश्व है। इसको पुनः सशक्त करना अश्वमेध है जिसे वाजीकरण (वाजि = अश्व) या काया-कल्प भी कहते हैं। दशरथ की पुत्र प्राप्ति यज्ञ को भी रामायण में अश्व (हय) मेध कहा है। दशरथ और उनकी रानियों की पुत्र जन्म देने की आयु बीत चुकी थी। पुत्र जन्म के लिए उनमें प्राण का सञ्चार आवश्यक था। यहां घोड़ा छोड़ने का अर्थ है प्राण प्रवाह मुक्त करना।
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वीर्यं वा अश्वः (शतपथ ब्राह्मण २/१/४/२३)
प्राणापानौ वा एतौ देवानाम्। यदर्काश्वमेधौ। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/२१/३)
सुतार्थी वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम् (रामायण, बालकाण्ड, ८/२)
तदर्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम (बालकाण्ड, ८/८)
(२) नरमेध-ब्रह्म पुराण, गौतमी माहात्म्य, अध्याय ३४ में सूर्य वंश के राजा हरिश्चन्द्र (प्रायः ७,३०० ईपू) की कथा है जिनको वरुण ने ऐसे पुत्र होने का वरदान दिया था जिसके कर्म और गुणों की ख्याति तीनों लोकों में फैलेगी। जैसे ही उनके पुत्र रोहित का जन्म हुआ, वरुण ने उसकी बलि की मांग की। हरिश्चन्द्र उसे कई बार टालते गये-दांत नहीं निकला है, यज्ञोपवीत नहीं हुआ या शिक्षा नहीं हुई, आदि। वरुण ने क्रुद्ध हो कर उनको जलोदर होने का शाप दिया। तब रोहित भाग गया और एक व्यक्ति शुनःशेप को बलि के लिए खरीद लाया। किन्तु वरुण उनकी पूजा से प्रसन्न हो गये और कहा कि बलि की आवश्यकता नहीं है।
यही कथा भागवत पुराण (९/७), ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय ३१, ऋक् सूक्त (१/२४) में है जिसमें शुनःशेप के मन्त्र हैं। इसका एक अर्थ है कि मिथ्या आचरण से अप्वा (जलोदर-Ascites) होता है (अथर्व, ३/२/५, ऋक्, १०/१०३/१२)। इसकी ओषधि रोहित (Tecomella undulata) नाम की वनस्पति है (चरक संहिता, चिकित्सा स्थान, १३/४५-८४)। किन्तु मुख्य अर्थ है कि यदि रोहित को मार कर बलि दी जाती, तो वरुण के वरदान का कोई अर्थ नहीं था कि पुत्र तीनों लोकों में विख्यात होगा। यहां बलि का अर्थ है अपनी पूरी शक्ति शिक्षा तथा देश की उन्नति में लगा देना।
इसी प्रकार अब्राहम की कथा बाइबिल और कुरान में है। अब्राहम ईराक के उर नगर में रहते थे। उनको भी गुणी पुत्र होने का वरदान मिला था। पर जन्म होते ही पुत्र इस्माइल की बलि मांगने लगे। मार कर बलि देने पर वह गुणी कैसे होता? अपने या पुत्र के बदले मुस्लिम लोग भेड़ (अरब में) या बकरे की बलि देते हैं। शुनःशेप सूक्त (ऋक्, १/२४) में भी कहा है कि राजा वरुण ने उरु नगर बनाया था। ईराक में इसके अवशेष प्रायः ८,००० वर्ष पुराने अनुमानित हैं।
उरुं हि राजा वरुण श्चकार (ऋग्वेद, १/२४/८)। अतः नरमेध का अर्थ है किसी उद्देश्य या देश के लिए जीवन लगाना। हत्या से कोई लाभ नहीं होना है। इसके लिए माता-पिता भी सन्तान को शान्त कर कर्मठ होने का आशीर्वाद देते हैं, जिसे शमिता कहते हैं। दैव्याः शमितार उत मनुष्या आरभध्वम्। उपनयत् मेध्या दुरः। अन्वेनं माता मनयताम्। अनुं पिता।… उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात्।… अध्रिगो शमीध्वं शमीध्वमध्रिगो। अध्रिगुश्चापापश्च उभौ शमितारौ॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/६/६/४)।
(३) गोमेध-एक अर्थ में सभी यज्ञ गो हैं। इसके मेध का अर्थ है, इसके उत्पाद का उपभोग। शतोदना गौ के मेध का आध्यात्मिक अर्थ है हृदय से निकली १०० नाड़ियों का मार्ग छोड़ कर १०१वी नाड़ी से जा कर मोक्ष प्राप्त करना।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति, विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति॥ (कठोपनिषद्, २/३/१६)
हिरण्यं ज्योतिषं कृत्वा यो ददाति शतौदनाम्। यो ते देवि शमितारः पक्तारो ये च ते जनाः॥ (अथर्व, १०/९/७)
आधिभौतिक रूप में गोमेध का अर्थ है गो रूपी पृथ्वी (स्थल, जल, वायु और जीव मण्डल इसके ४ स्तन हैं) या उसके अंश अप्ने देश का पालन करना।
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १९/१३/१)
इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/३४)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनुर्मातेव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण, २/२/१/२१)
(४) सर्वमेध यज्ञ-सभी यज्ञों में समन्वय का भाव सर्वहुत या गीता का ब्रह्म यज्ञ है। ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। अतः यज्ञ स्थान, हवि, हवन, उत्पाद, कर्ता आदि सभी कुछ ब्रह्म है। ब्रह्म का ही ब्रह्म में हवन हो रहा है। कर्ता, कर्म आदि सभी एक हैं, अतः इसे सुकृत कहा है। बाइबिल में इसका अनुवाद है कि हर सृष्टि के बाद भगवान् ने कहा कि बहुत अच्छा बना है। उनको किसी से अपने काम का प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नहीं थी।
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असत् वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सत् अजायत। तदा आत्मानं स्वयं अकुरुत। तस्मात् तत् सुकृतं उच्यत, इति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/१)
तत् सर्वेषु भूतेषु आत्मानं हुत्वा, भूतानि चात्मनि, सर्वेषां भूतानां श्रैष्ठ्यं स्वाराज्यं आधिपत्यम् पर्यैत्, तथैव एतद् यजमानः सर्वमेधे सर्वान् मेधान् हुत्वा सर्वाणि भूतानि श्रैष्ठ्यं स्वाराज्यं आधिपत्यं पर्येति (शतपथ ब्राह्मण, १३/७/१/१)
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतं।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना। (गीता, ४/२४)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक का निजी विचार है)