
Prerak Prasang: मेरे आत्मन! यह जो दुनिया है, यह दो पर टिकी है। दो पर न टिकी होती तो इसका नाम दुनिया नहीं, इकनिया होता। सही बात है। यहाँ जो है जोड़े में है। दिन है तो रात है, जन्म है तो मृत्यु है, लाभ है तो हानि है, मान है तो अपमान है, ऐसे ही सुख है तो दुख भी है। सिक्के के दो पहलुओं की तरह, एक हाथ में आएगा, तो दूसरे को साथ ही लाएगा। एक सामने है तो दूसरा पीछे छिपा है, प्रतीक्षा में है, अब बाहर निकला कि तब।
सागर की लहर जो अभी उठी ही है, अभी गिरेगी भी। और जितनी ऊपर उठी, उतनी ही नीचे जाएगी, उसे कौन रोकेगा? सूर्य निकला है, तो छिपेगा भी। परेशानी तब है जब तुम सुख तो चाहते हो, दुख नहीं चाहते। सुख से तो सटना, पर दुख से हटना, यह ऐसा असंभव काम है, जो न कभी हुआ है, न होगा। सुख की चाह की, कि दुख को निमंत्रण गया। सुख आने की तैयारी में लगा, कि दुख पीछे से दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। तुम या तो दोनों को अस्वीकार कर दो, या दोनों को स्वीकार कर लो। और बड़ा ही सरल सीधा और गजब का रहस्य यह है, कि तुमने दुख को स्वीकार किया कि दुख के प्राण गए। फिर दुख है ही नहीं।
इसे भी पढ़ें: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बाबा साहेब अम्बेडकर
“क्वचित् भूमो शय्या क्वचिद्पि च पर्यंकशयनम्,
क्वचित् शाकाहारी क्वचिद्पि च साल्योदन रुचिः।
क्वचित् कंथाधारी क्वचिद्पि च दिव्याम्बरोधरो,
मनः स्वीकार्यार्थी नगणयति सुखम् न दुखम्॥”
लाख दुख क्यों न आ जाएँ, सदा मुस्कुराते खिलखिलाते रहने वाले को उस दुख की आँच छू भी नहीं पाती। लोकेशानन्द कहता है कि प्रशंसा या आलोचना करने से, ताली या गाली से कुछ नहीं होगा। बात तो तब है जब यह सूत्र अंतःकरण में उतर जाए। तब तो जीवन संवर जाए।
इसे भी पढ़ें: सुंद-उपसुंद की कथा