Pauranik Katha: मार्कंडेय पुराण एवं श्री हरिवंश पुराण में वर्णित कथाओं के अनुसार कल्पान्त में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर में शेष शैया पर योगनिद्रा में निमग्न थे। तभी उनके कान के मैल से मधु कैटभ नामके दो अत्यंत बलशाली राक्षसों का प्रादुर्भाव हुआ। उन दोनों की दृष्टि श्री विष्णु के नाभि कमल पर विराजमान ब्रह्मा जी पर पड़ी। ये दोनों ब्रह्मा जी को मारने के लिए तैयार हो गए। ब्रह्मा जी ने बचने के लिए भगवती योगमाया की स्तुति की, जिससे भगवती योगमाया भगवान् श्री विष्णु के हृदय एवं नेत्रों से बाहर आ गईं तथा श्री विष्णु नींद से जगे। श्री विष्णु ने मधु कैटभ के साथ 5000 वर्षों तक युद्ध किया। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला और ये वहां से चले गए।
मधु व कैटभ अत्यंत शक्तिशाली थे तथा स्वयं को मिले वरदान स्वरूप उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली थी। इन दोनों को वरदान था कि ये जल थल नभ तीनों में से कहीं नही मारे जाएंगे। दोनों ने अपने पराक्रम से देवराज इंद्र को भी परास्त कर दिया था तथा स्वर्ग पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उनकी तृष्णा यही नहीं शांत हुई। इसके पश्चात उन्होंने पुनः भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पर चढ़ाई कर दी। अपने अहंकार में चूर मधु व कैटभ वैकुण्ठ धाम पहुँच गए तथा भगवान विष्णु को युद्ध के लिए ललकारा। वैकुण्ठ धाम में राक्षसों के आ जाने के कारण माता लक्ष्मी भयभीत व क्रोधित हो गयी, किंतु भगवान विष्णु शांत रहे। भगवान विष्णु अपने शेषनाग से उतरे तथा उनके साथ पुनः भीषण युद्ध किया।
अंत में भगवान विष्णु ने उन दोनों का वध करने के उद्देश्य से अपना सुदर्शन चक्र चलाया, लेकिन वह भी उन दोनों का वध कर पाने में अक्षम था। यह देखकर तीनों लोकों में भय व्याप्त हो गया लेकिन भगवान विष्णु ने अपना धैर्य नहीं खोया। मधु तथा कैटभ लगातार भगवान विष्णु का उपहास कर रहे थे। तब भगवती महामाया के द्वारा दोनों राक्षसों को विमोहित किये, जाने के कारण अहंकार व मुर्खता में उन्होंने भगवान विष्णु से वर मांगने को कहा। उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि हम तुम्हारे युद्ध से अति प्रसन्न हैं, अतः तुम हमसे कोई वर मांगों। वे ये नही जानते थे कि वे स्वयं नारायण व मायापति को वर मांगने को कह रहे हैं जो कि स्वयं सभी को वर देते हैं।
जब मधु व कैटभ ने अपने अहंकार में भगवान विष्णु से वर मांगने को कहा तो उन्होंने बहुत ही चालाकी से काम लिया। भगवान विष्णु ने चालाकी से उनकी मृत्यु का मार्ग वर में मांग लिया। चूँकि मधु तथा कैटभ दोनों भगवती महामाया के द्वारा विमोहित थे और अपने अहंकार में चूर थे, इसलिये उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी मृत्यु का मार्ग बता दिया। उन्हें लगता था कि अब तो विष्णु भी उनसे हार चुके हैं, इसलिये उन्हें कोई नहीं मार सकता। उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी मृत्यु का मार्ग बताते हुए कहा कि उनकी मृत्यु केवल उनकी जाँघों पर ही हो सकती है।
इतना सुनते ही भगवान विष्णु ने माया से अपने शरीर को इतना विशाल कर लिया कि वह तीनों लोकों में फैल गए। उन्होंने अपनी दोनों जांघों के बीच मधु तथा कैटभ को फंसा लिया तथा अपनी गदा से उनका वध कर डाला। इस प्रकार तीनों लोको में पुनः धर्म की स्थापना हो सकी व राक्षस राजा का अंत हो गया। त्रेता युग में यही दोनों राक्षसों ने लंका में जन्म लिया, जिसमें से मधु रावण का छोटा भाई कुंभकरण बना तथा कैटभ रावण का पुत्र अतिकाय। इसमें से एक का वध स्वयं भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम ने तथा दूसरे का वध उनके शेषनाग लक्ष्मण ने किया था।
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इससे यह स्पष्ट है कि मधु एवं कैटभ का वध भगवान श्री विष्णु ने भगवती महामाया के सहयोग से किया। जिससे उनका नाम मधुसूदन एवं कैटभाजित् भी है। भगवती महामाया श्री विष्णु के हृदय में वास करती है “श्री कैटभारि हृदयैक कृताधिवासा” अर्थात् (हे भगवती, हे महामाये, हे माते) कैटभारि (कैटभ के दुश्मन, श्री विष्णु) के हृदय में वास करने वाली। वैसे, इसका एक और अर्थ है कान से सुनी बुरी बातें, शिकायत भी मधु कैटभ हैं जो नर को नारायण की पहुँच से, भक्ति से, सुकृति से (माया के तम में, अंधकार में डालकर) दूर रखती हैं तथा मारने, विनष्ट करने के लिए तत्पर हैं। इस माया के पाश से, बंधन से भगवती महामाया ही बचा सकती हैं। मधु का अर्थ मद्य भी होता है। जो मद एवं मोह का कारण है।
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