अरबिन्द शर्मा 'अजनवी'
अरबिन्द शर्मा ‘अजनवी’

मधुर मिलन की प्रथम रात।
जब मयखाने में आई थी।।
नई नवेली मधु प्रेमी बन।
कुछ सकुची शरमाई थी।।

चाहत के घट छलक रहे थे।
उमड़ रही उर की हाला।।
प्रियतम से मिलने को आतुर।
मचल रहा मन मतवाला।।

आतुरता की मादकता।
मुखमंडल पर थी चमक रही।।
उठा दिये घुंघट पट साजन।
बिजली तन मे कौंध गई।।

सुघर लाल आँखों से तब।
मद्य के पैमाने छलक उठे।।
मधुघट सी कलकल धुन करती।
पैर पैजनी खनक उठे।।

मद्य प्याले सी जल तरंग।
चूड़ियों की खन खन करती थी।।
कमर करधनी रुनझुन रुनझुन।
वीणा झंकृत करती थी।।

सावन की घनघोर घटा सी।
ज़ुल्फ़ें कुछ मतवाली थी।।
काले काजल मदमस्त नयन में।
सुर्ख़ होंठ पर लाली थी।।

स्पर्श किये साजन मुझको।
नज़रों पर नज़रें टीका दिये।।
अनंत प्रेम की अमिय बूँद।
अधरों से उर को पिला दिये।।

प्रेम सुधा रस बरस रही थी।
तृप्त हुई उर की ज्वाला।।
शाकी बन साजन आये थे।
मैं अल्हड़ पीने वाला।।

लिपट गई गलबांहे कर मैं।
साजन की आग़ोश में।।
जैसे चन्दा सिमट रहा हो।
नभ मंडल की गोंद में।।

पवित्र प्रेम का मिलन हुआ।
अनगिनत जाम रस छन्द बने।।
मधुमय करने जीवन पथ को।
प्रियतम मेरे मकरंद बने।।

इसे भी पढ़ें: विरह की वेदना

Spread the news