जांजगीर: आंख, नाक, कान, मुंह, हाथ-पैर हर जगह सिर्फ राम-राम का नाम, ये रामनामी समाज के लोग हैं। इनके लिए राम किसी मंदिर में नहीं, किसी मूर्ति में नहीं, बल्कि इनके रोम-रोम में प्रभु श्री राम हैं। शरीर का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जहां राम न लिखा हो, कपड़ों पर राम, शॉल पर राम, टोपी पर राम यहां तक कि घर की दीवारों और दरवाजों पर भी केवल एक ही नाम है, राम-राम लिखवाने की परम्परा है। यहां तक कि समाज में मरने के बाद ये अपना शव जलाने की जगह दफनाने की परम्परा हैं, ताकि उनके शरीर पर लिखा राम-राम जल न जाए। वे किसी से मिलते हैं तो एक दूसरे को राम-राम कहकर अभिवादन करते हैं। किसी को पुकारते भी हैं तो केवल राम-राम बोलकर, इनके लिए बस राम नाम ही पर्याप्त है।

रामनामी समाज के लोग निराकार प्रभु श्री राम को मानते हैं। प्रभु श्री राम के नाम को इन्होंने अपने रोम-रोम में सुशोभित किया है। समाज के लोगों ने अनुसार 1860 में इन्हें मंदिर में अछूत कहकर नहीं जाने दिया गया, तब इन लोगों ने अपने पूरे शरीर में ही राम-राम गुदवा लिया। लगभग 135 साल पहले छुआछूत व आडंबर से त्रस्त होकर अविभाजित बिलासपुर जिले के छोटे से गांव से इस पंथ की शुरुआत हुई। समाज के लोग पूरे तन में राम नाम का गोदना गुदा होता है, जो वस्त्र धारण करते उन पर भी लिखते राम का नाम लिखा होता है।

समाज के लोग मंदिर जाने और मूर्ति पूजा नहीं करते, बल्कि उन्हें अपने रोम-रोम में बसा लिया है। यह समाज मूलत: अविभाजित जांजगीर-चांपा, रायगढ़, बलौदाबाजार, भाठापारा, महासमुंद और रायपुर जिले के लगभग सौ गांवों में आज भी इनका बसेरा है, लेकिन वर्तमान में गिनती के ही परिवार बचे हैं। दरअसल, राम नाम का गोदना तन पर, यहां तक कि चेहरे पर भी धारण करने की इनकी इस परंपरा अब धीरे-धीरे लोप होने के कगार पर है। पिछली जनगणना के अनुसार इनकी आबादी लगभग 12 हजार तक पहुंच गई थी, मगर आज डेढ़ सौ के आंकड़े तक आ पहुंची है। समाज के लोगों का कहना है कि नई पीढ़ी के लोग गोदना गुदवाने से परहेज कर रहे हैं। कुछ आधुनिकता का भी प्रभाव है, जिससे रामनामी को मानने वालों की संख्या कम होने लगी है। फिर भी जितना संभव है, परंपराओं के संरक्षण का प्रयास समाज के लोगों द्वारा किया जा रहा है।

मालखरौदा क्षेत्र के चारपारा से पंथ की हुई शुरुआत

समाज के लोगों के अनुसार लगभग वर्ष 1890 में मालखरौदा क्षेत्र के चारपारा निवासी परशुराम भारद्वाज नामक युवक ने रामनामी पंथ की शुरुआत की थी। इस समाज के लोग प्रभु श्रीराम के प्रति अटूट आस्था रखते हैं, मगर वे न तो वे मंदिर जाते हैं, न ही मूर्ति की पूजा करते हैं। वे केवल प्रभु राम के निराकार रूप की भक्ति को ही जीवन का आधार मानते हैं। इसीलिए शरीर के हर हिस्सों में राम नाम का गोदना धारण करते हैं। बड़े-बुजुर्गों की मानें तो, ये संदेश देते हैं कि राम तो रोम-रोम और कण-कण में बसते हैं।

परंपरा को संरक्षित करने की जरूरत

पंथ के प्रमुख प्रतीकों में जैतखांभ या जय स्तंभ, मोर पंख से बना मुकुट है, शरीर पर राम-राम का गोदना, राम नाम लिखा कपड़ा और पैरों में घुंघरू धारण करना प्रमुख है। समाज के लोगो का कहना है कि मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव और हमारे समाज के लोगों को निम्न समझे जाने के कारण पूजा आदि से वंचित रखने के फलस्वरूप रामनामी समाज की स्थापना की गई थी। समाज के लोग मांसमदिरा का सेवन नहीं करते। सरकार ने भी इस परंपरा के संरक्षण पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।

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कुदरी में तीन दिवसीय रामनामी भजन का होगा आयोजन

रामनामी समाज के लोग महानदी नदी के आसपास के जिलों के 300 से अधिक गांवों में रहते हैं। अविभाजित जांजगीर-चाम्पा जिले के अलावा सारंगढ़, रायगढ़, बिलईगढ़, कसडोल आदि शामिल हैं। यह मेला पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में स्थित गांवों में एक बार आयोजित किया जाता है। यह मेला एक बार यहां बहने वाली महानदी नदी के किनारे और अगली बार महानदी नदी के दूसरी ओर आयोजित की जाती है। इस बार रामनामी मेला मालखरौदा ब्लॉक के ग्राम कूदरी में 21 से 23 जनवरी तक आयोजित की जाएगी।

(साभार नव प्रदेश)

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