Kahani: एक बड़ा सुन्दर शहर था, उसका राजा बड़ा उदार और धर्मात्मा था। प्रजा को प्राणों के समान प्यार करता और उनकी भलाई के लिए बड़ी-बड़ी सुन्दर राज व्यवस्थाएं करता। उसने एक कानून प्रचलित किया कि अमुक अपराध करने पर देश निकाले की सजा मिलेगी। कानून तोड़ने वाले अनेक दुष्टात्मा राज्य से निकाल बाहर किये गये, राज्य में सर्वत्र सुख शान्ति का साम्राज्य था।
एक बार किसी प्रकार वही जुर्म राजा से बन पड़ा। बुराई करते तो कर गया पर पीछे उसे बहुत दुःख हुआ। राजा था सच्चा, अपने पाप को वह छिपा भी सकता था। पर उसने ऐसा किया नहीं। दूसरे दिन बहुत दुखी होता हुआ वह राज दरबार में उपस्थित हुआ और सबके सामने अपना अपराध कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा कि मैं अपराधी हूँ इसलिए मुझे दण्ड मिलना चाहिए। दरबार के सभासद ऐसे धर्मात्मा राजा को अलग होने देना नहीं चाहते थे फिर भी राजा अपनी बात पर दृढ़ रहा। उसने कड़े शब्दों में कहा, राज्य के कानून को मैं ही नहीं मानूँगा तो प्रजा उसका किस प्रकार पालन करेगी? मुझे देश निकाला होना ही चाहिये।
निदान यह तय करना पड़ा कि राजा को निर्वासित किया जाय। अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि नया राजा कौन हो? उस देश में प्रजा में से ही किसी व्यक्ति को राजा बनाने की प्रथा थी। जब तक नया राजा न चुन लिया जाय तब तक उसी पुराने राजा को कार्य भार सँभाले रहने के लिए विवश किया गया। उसे यह बात माननी पड़ी। उस जमाने में आज की तरह वोट पड़कर चुनाव नहीं होते थे। वह अच्छी तरह जानते थे कि यह प्रथा उपहासास्पद है। लालच, धौंस और झूठे प्रचार के बल पर कोई नालायक भी चुना जा सकता है। इसलिए उपयुक्त व्यक्ति की कसौटी उनके सद्गुण थे। जो अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता था वही अधिकारी समझा जाता था।
उस देश का राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही प्रधानमन्त्री बुद्धिमान था। उसने नया राजा चुनने की तिथि नियुक्त की। और घोषणा की कि अमुक तिथि को दिन के दस बजे जो सबसे पहले राजमहल में जाकर महाराज से भेंट करेगा वही राजा बना दिया जायेगा। राजमहल एक पथरीली पहाड़ी पर शहर से जरा एकाध मील हटकर जरूर था पर उसके सब दरवाजे खोल दिये गये थे भीतर जाने की कोई रोक टोक न थी। राजा के बैठने की जगह भी खुले आम थी और वह मुनादी करके सबको बता दी गई थी।
राजा के चुनाव से एक दो दिन पहले प्रधानमन्त्री ने शहर खाली करवाया और उसे बड़ी अच्छी तरह सजाया। सभी सुखोपभोग की सामग्री जगह-जगह उपस्थिति कर दी। उन्हें लेने की सबको छूट थी किसी से कोई कीमत नहीं ली जाती। कहीं मेवे-मिठाइयों के भण्डार खुले हुए थे तो कहीं खेल-तमाशे हो रहे थे। कहीं आराम के लिए मुलायम पलंग बिछे हुए थे तो कहीं सुन्दर वस्त्र-आभूषण मुफ्त मिल रहे थे। कोमलाँगी तरुणियाँ सेवा सुश्रूषा के लिए मौजूद थीं। जगह-जगह नौकर दूध और शर्बत के गिलास लिये हुए खड़े थे। इत्रों के छिड़काव और चन्दन के पंखे बहार दे रहे थे। शहर का हर एक गली कूचा ऐसा सज रहा था मानो कोई राजमहल हो।
चुनाव के दिन सबेरे से ही राजमहल खोल दिया गया और उस सजे हुए शहर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी गई। नगर से बाहर खड़े हुए प्रजाजन भीतर घुसे तो वे हक्के-बक्के रह गये। मुफ्त का चन्दन सब कोई घिसने लगा। किसी ने मिठाई के भण्डार पर आसन बिछाया तो कोई सिनेमा की कुर्सियों पर जम बैठा, कोई बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनने लगा तो किसी ने गहने पसन्द करने शुरू किये। कई तो सुन्दरियों के गले में हाथ डालकर नाचने लगे सभी अपनी अपनी रुचि के अनुसार सुख-सामग्री का उपयोग करने लगे।
एक दिन पहले ही सब प्रजाजनों को बता दिया गया था कि राजा से मिलने का ठीक समय 10 बजे है। इसके बाद पहुँचने वाला राज का अधिकारी न हो सकेगा। शहर सजावट चन्द रोज का है, वह कल समय बाद हटा दी जायेगी। एक भी आदमी ऐसा नहीं बचा था जिसे यह बातें सुना न दी गई हों, सबने कान खोलकर सुन लिया था।
शहर की सस्ती सुख सामग्री ने सब का मन ललचा लिया उसे छोड़ने को किसी का जी नहीं चाहता था। राज मिलने की बात को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। कोई सोचता था दूसरों को चलने दो मैं उनसे आगे दौड़ जाऊँगा, कोई ऊंघ रहे थे अभी तो काफी वक्त पड़ा है, किसी का ख्याल था सामने की चीजों को ले लो, राज न मिला तो यह भी हाथ से जाएंगी, कोई तो राज मिलने की बात का मजाक उड़ाने लगे कि यह गप्प तो इसलिये उड़ाई गई है कि हम लोग सामने वाले सुखों को न भोग सकें। एक दो ने हिम्मत बाँधी और राजमहल की ओर चले भी पर थोड़ा ही आगे बढ़ने पर महल का पथरीला रास्ता और शहर के मनोहर दृश्य उनके स्वयं बाधक बन गये बेचारे उल्टे पाँव जहाँ के तहाँ लौट आये। सारा नगर उस मौज बहार में व्यस्त हो रहा था।
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दस बज गये पर हजारों लाखों प्रजाजनों में से कोई वहाँ न पहुँचा। बेचारा राजा दरबार लगाये एक अकेला बैठा हुआ था। प्रधानमन्त्री मन ही मन खुश हो रहा था कि उसकी चाल कैसी सफल हुई। जब कोई न आया तो लाचार उसी राजा को पुनः राज भार सँभालना पड़ा। यह कहानी काल्पनिक है परन्तु मनुष्य जीवन में यह बिल्कुल सच उतरती है। ईश्वर को प्राप्त करने पर हम राज्य मुक्ति अक्षय आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। उसके पाने की अवधि भी नियत हैं मनुष्य जन्म समाप्त होने पर यह अवसर हाथ से चला जाता है। संसार के मौज तमाशे थोड़े समय के हैं यह कुछ काल बाद छिन जाते हैं। सब किसी ने यह घोषणा सुन रखी है कि संसार के भोग नश्वर हैं, ईश्वर की प्राप्ति में सच्चा सुख है, प्रभु की प्राप्ति का अवसर मनुष्य जन्म में रहने तक ही है। परन्तु हममें से कितने हैं जो इस घोषणा को याद रख कर नश्वर माया के लालच में नहीं डूबे रहते? यह कहानी हमारे जीवन का एक कथा चित्र है।
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