कल्याण सिंह के शब्दों में काला ब्राह्मण गोविन्दाचार्य के इंटरनल हिन्दू फांउडेशन से मैंने अरविंदो पुरस्कार क्यों नहीं लिया? इसने मुझे अरविन्दो सम्मान देने की घोषणा की थी। इस संगठन से सम्मान नहीं लेने के पीछे के करण सनातन संहार में निहित हैं। सनातन के संहार में सिर्फ आयातित संस्कृति की हिंसक और एकमेव प्रवृति ही नहीं लगी हुई है, बल्कि सनातन की आतंरिक संरचना ब्राह्मण यूनियनबाजी, बनिया दृष्टि भी लगी हुई हैं। ब्राह्मण सिर्फ अपने आपको ही ब्राह्मण मानता है और बनिया ब्राम्हणों का पालन हार है। बनियों के खून और पसीने की कमाई का असली मजा फर्जी और ब्राह्मण यूनियनबाजी से युक्त हिंदू संगठन, पुजारी और सेक्युलर संत, कथावाचक लेते हैं।
इंटरनल हिन्दू संगठन गोविन्दाचार्य की ब्राह्मणवादी यूनियनबाजी है, दुकानदारी है और अपनी छिपी हुई लालशा को शांत करने की प्रवृति है। इंटरनल हिन्दू संगठन ने कभी नूपुर शर्मा का समर्थन किया था क्या, नूपुर शर्मा के पक्ष में बोला था क्या, नूंह में हिन्दुओं को बंधक बना कर कत्लेआम करने की साजिश और करतूत के खिलाफ बोला था क्या, हरियाना के पचास से अधिक गांव हिन्दू विहीन कर दिये गये, के खिलाफ कभी बोला था क्या, पश्चिम बंगाल में लाखों हिन्दुओं को खदेड़ दिया गया, उनका धर्मातंरण हो रहा है के खिलाफ बोला था क्या, दिल्ली के दर्जनों महल्लों से हिन्दुओ को खदेड़ा जा रहा है, के खिलाफ बोला है क्या , देश भर में दर्जनों हिन्दू एक्टिविस्टों को मौत का घाट उतार दिया गया, के खिलाफ बोला है क्या?
गोविन्दाचार्य का चरित्र चित्रण जरूरी है। जब कल्याण सिंह अपने संबोधन में गोविन्दाचार्य को काला ब्राह्मण कहते थे तो फिर मुझे भी गुस्सा आता था, क्रोध आता था, कल्याण सिंह की समझदारी पर अविश्वास होता था, उस समय तक मेरी ब्राह्मण यूनियनबाजी की समझ बहुत ही कमजोर थी और ब्राह्मणवाद को मैंने सनातन समृद्धि का प्रतीक मानता था, मेरी समझ नहीं थी कि अटल बिहारी वाजपेयी की तरह गोविन्दाचार्य का चरित्र और दर्शन भी ब्राह्मणवाद से मिला हुआ है। उल्लेखनीय है कि गोविन्दाचार्य भी दक्षिण के ब्राह्मण हैं। फिर मेरी ब्राह्मण यूनियनबाजी पर समझ विकसित हुई। समझदारी इसलिए विकसित हुई कि अटल बिहारी वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी दोनों कल्याण सिंह को देखना तक नहीं चाहते थे, इनकी विदाई चाहते थे।
इस निमित गोविन्दाचार्य को जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। गोविन्दाचार्य दो काम कर रहे थे, एक वे उंची जाति के विधायकों को भड़का रहे थे और कल्याण सिंह के खिलाफ विद्रोह भी करा रहे थे, दूसरा काम यह कि वे कल्याण सिंह के खिलाफ मीडिया में खबरें भी प्रकाशित करा रहे थे। कल्याण सिंह के खिलाफ वाजपेयी के उम्मीदवार लालजी टंडन और कलराज मिश्र थे। लालजी टंडन और कलराज मिश्र ब्राह्मण होने के कारण भाजपा की राजनीति में चमक-दमक रखते जरूर थे पर उन दोनों की छवि कल्याण सिंह के सामने जीरो थी। गोविन्दाचार्य के लाख कोशिशों के बावजूद कलराज मिश्र और लालजी टंडन की छवि नहीं चमक सकी थी।
वाजपेयी और जोशी के साथ ही साथ गोविन्दाचार्य की आंखों के लिए कल्याण सिंह किरकिरी बने हुए थे। इन लोगों ने कल्याण सिंह को समाप्त करने के लिए बसपा और मायावती की दांव भी खेला था। फिर राजनाथ सिंह को खड़ा कर दिया गया, इस व्यक्ति को यूपी का अध्यक्ष बना दिया गया। राजनाथ सिंह जो विधानसभा का चुनाव भी पंसदीदा क्षेत्र से नहीं जीत सके थे, वह राजनाथ सिंह न केवल वाजपेयी, जोशी बल्कि गोविन्दाचार्य के लिए आईकॉन बन गये थे। कभी कल्याण सिंह का पैर छूने वाले राजनाथ सिंह उन्हें आंख दिखाने लगे।
दिल्ली में भाजपा के केन्द्रीय कार्यालय में गोविन्दचार्य ने कल्याण सिंह को सीधे धमकी पिलायी थी और कहा था कि आप मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दीजिये, नहीं तो बर्खास्त कर दिया जायेगा। कल्याण सिंह ने इस्तीफा देना ही उचित समझा। इसके पूर्व गोविन्दाचार्य कुसुम राय तक दौड़ लगा चुके थे, कल्याण सिंह को इस्तीफा दिलाने के लिए मदद करने पर राज्यसभा का सदस्य बनाने का पाशा फेंका गया था। बाद में इसी समझौते के तहत कुसुम राय राज्यसभा की सदस्य बनी थीं। राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा उस काल में गर्त में समायी थी। वैसी पराजय किसी ने सोची भी नहीं थी।
गोविन्दाचार्य ने बिहार में भी ऐसी ही चाल चली थी। इंदर सिंह नामधारी को प्रदेश अध्यक्ष से इसी कारण हटवाने की साजिश रची थी कि गोविन्दाचार्य के स्वागत के लिए स्टेशनों और हवाई अड्डे तक उपस्थित नहीं रहते थे। इंदर सिंह नामधारी ब्राह्मण होते तो गोविन्दाचार्य कभी भी उन्हें पार्टी से नहीं निकलवाते। हरियाणा के नेता रामविलास शर्मा की शिकायत पर तत्कालीन हरियाणा प्रदेश के संगठन मंत्री जगदीश मित्तल को भाजपा से बाहर किया गया था, शिकायत यह थी कि जगदीश मित्तल ब्राह्मण विरोधी हैं और रामविलास शर्मा को प्रभावशाली नेता नहीं बनने देना चाहते हैं। उमा भारती प्रकरण भी उल्लेखनीय है। गोविन्दाचार्य ने उमा भारती की राजनीतिक कॅरियर को प्रभावित किया था। लोग कहते हैं कि गोविन्दाचार्य, पत्रकार प्रभाष जोशी और रामबहादुर राय ने उमा भारती को भाजपा छोड़ने और अलग पार्टी बनाने की सलाह दी थी। प्रभाष जोशी संघ और भाजपा की जानी दुश्मन थे और इन दोनों संगठनों को प्रभाष जोशी सांप्रदायिक कहते थे, राम बहादुर राय पत्रकारिता में प्रभाष जोशी को गुरू मानते थे, चन्द्रशेखर और वीपी सिंह के दरबारी थे फिर भी मोदी के राज में रामबहादुर राय ब्राह्मण यूनियनबाजी के कारण माल चाभ रहे हैं।
अति महात्वाकांक्षा के कारण भाजपा से गोविन्दाचार्य की विदाई हुई, ब्राह्मण शिरोमणि अटल बिहारी वाजपेयी ने गोविन्दाचार्य को पार्टी से निकलवा कर बाहर कर दिया। लेकिन फिर इन्होंने एक पिछड़ी जाति से आने वाली उमा भारती का राजनीतिक कॅरियर बर्बाद कर दिया। अगर उमा भारती भाजपा नहीं छोड़ती और अलग पार्टी नहीं बनाती, तो वह नरेन्द्र मोदी की जगह प्रधानमंत्री भी बन सकती थी, क्योंकि अटल, आडवाणी के बाद उमा भारती का योगदान सर्वश्रेष्ठ रहा है। उमा भारती के आग उगलते भाषणों ने भाजपा की जनाधार बनाया था।
गोविन्दाचार्य फिर ब्राह्मण कल्याण में लग गये। अपने नाम के नीचे कई संगठन खड़े कर रखे हैं, जो सीधे तौर ब्राह्मणवाद को चमका रहे हैं। इंटरनल हिन्दू फांउडेशन के संचालकों को ही देख लीजिये, इनकी जमा पूंजी सनातन नहीं है, इनकी जमा पूंजी जातिवाद ही है। संजय शर्मा ब्राह्मण हैं। एक दाढ़ी वाला पवन श्रीवास्तव सरकारी कर्मचारी से सेवानिवृत हैं, कभी ये संघ-भाजपा विरोधी थे, बाद में बुढ़ापा खफाने के लिए गोविन्दाचार्य के शरण में डूब गये। इंटरनल हिन्दू फाउंडेशन हाथी के दांत से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इसमें उंची जातियों का वर्चस्व है। इनके पदाधिकारियों और प्रतीकों की सूची देखेंगे तो उसमें दलित और पिछड़ों की जगह नहीं है या फिर बहुत सीमित है। अभी भी अरविन्दो पुरस्कार पाने वाले अधिकतर लोग उंची जाति के लोग ही थे। अगर अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि अरविन्दो पुरस्कार पाने वाले अधिकतर लोगों की पहचान हिन्दुत्व संरक्षक और अभियानी की रही ही नहीं है।
गोविन्दाचार्य जैसे लोगों के हिन्दू संगठन यह सोचते नहीं कि ब्राह्मण यूनियनबाजी से सनातन बचने वाला नहीं है। सनातन की अभी घूकधूकी बची है उसके पीछे दलितों और पिछड़ों की भूमिका है। गुजरात दंगों में विधर्मियों से सामना करने वाला ब्राह्मण या फिर उंची जाति के लोग नहीं थे, बल्कि दलित और आदिवासी थे। पश्चिम उत्तर प्रदेश में जब भी दंगा हुआ तब सनातन की रक्षा करने वाले खटिक जाति रही है, जिसे ब्राह्मण यूनियनबाजी ने अक्षूत करार दिया है। देश भर में जहां भी दंगा होता है वहां सनातन की रक्षा करने वाले दलित और पिछड़े वर्ग के लोग ही होते हैं। पर्व-त्योहारों पर सड़कों पर खुशी मनाने वाले, कावड़ लेकर चलने वाले अधिकतर दलित और पिछड़े वर्ग के लोग ही होते हैं।
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गोविन्दाचार्य के विभिन्न संगठनों और अन्य हिन्दू संगठनों का सर्वे कर लीजिये सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण यूयियनबाजी ही मिलेगी। हाथी के दांत की तरह ही दलितों और पिछड़ों की उपस्थिति मिलगी। जबकि देश में ब्राम्हणों और ऊंची जातियों की संख्या कितनी है? नीतीश कुमार ने बिहार में जनगणना कर दिया, ब्राह्मण यूनियनबाजी बेपर्दा हो गयी। नरेन्द्र मोदी के कारण दलित और पिछड़ों की बगावत नहीं हो रही है। अगर नरेन्द्र मोदी को परचम नहीं होता तो फिर भाजपा और हिन्दू आधारित संगठन बैमौत मरते। कांग्रेस का राज अपराजय होता। इसके अलावा विधर्मियों की जीत और वर्चस्व खतरनाक तौर पर चलता रहता।
ब्राह्मण यूनियनबाजी के पालनहार बनिये हैं। मूर्खता में ये ब्राम्हणों का पालनहार बन जाते हैं, ब्राह्मण यूनियनबाजी का घिनौना चेहरा गोविन्दाचार्य हों, या फिर मंदिरों के पूजारी, कथा वाचक या फिर गौशाला संचालक, सबके सब बनियों के पैसे पर चलते हैं। अगर बनिये पैसे नहीं दे, तो फिर सनातन के नाम पर चलने वाली ब्राह्मण यूनियनबाजी बेमौत मरेगी। पैसा तो सबके पास है पर सनातन की सुरक्षा में पैसा सिर्फ बनिया ही लगाते हैं। अडानी-अंबानी और जाटो की खरबपति को देखिये और विडला परिवार को देख लीजिये, तुलनात्मक अध्ययन कर लीजिये।
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मैं हिन्दुत्व का प्रहरी हूं। किसी फर्जी और ब्राह्मण यूनियनबाजी से युक्त संगठन से कोई सम्मान कैसे ले सकता हूं, मैं तो जाति तोड़ो और सनातन बचाओ अभियान का सारथी हूं। नरेन्द्र मोदी के कारण हिन्दुत्व बचा हुआ है, जिस दिन नरेन्द्र मोदी सरकार का पतन हुआ उस दिन भाजपा से दलित, पिछड़े, कमजोर बनियों का नाता भी टूट जायेगा, ये अलग हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में विख्यात और अविख्यात सहित सभी हिन्दू संगठन बेमौत मारे जायेंगे, फिर मतलबी ब्राह्मण भी दूसरे हरे-भरे पेड़ पर चला जायेगा। इसीलिए मैंने काला ब्राह्मण गोविन्दाचार्य के ब्राह्मण यूनियनबाजी और पैसे की दुकानदारी से युक्त इंटरनल हिन्दू फाउंडेशन से अरविन्दो सम्मान नहीं लिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)