Pragya Mishra
प्रज्ञा मिश्रा

अकसर लगता है दुनिया बेरंग ही सही थी। ये लाल, हरे के चक्कर में फसाद बहुत है। धर्म इतना कमजोर नहीं है कि उसे बचाने के लिए आपको आगे आना पड़े और अगर इतना ही कमजोर है तो वो धर्म ही नहीं है। हाँ, मजहब या पंथ ऐसे जरूर होते हैं, जिनको अक्सर बचाने के लिए उनके अनुयायी आवाज लगाते हैं। हमारा उद्घोष तो धर्मोरक्षित रक्षितः है।

“धारयति इति धर्मः” अर्थात जो धारण करे वो धर्म है। धर्म आपको धारण करता है, इस समूचे ब्रह्माण्ड को धारण करता है। उसे रंग में, कपड़ों में तोलना, हमारी ही छोटी सोच का नतीजा है। गाँधी के विचारों की मैं बहुत समर्थक नहीं हूँ, मगर उनकी एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है वो ये कि “धर्म किसी व्यक्ति का निजी मामला है।” फिर इसका प्रदर्शन क्यों करना?

इसे ऐसे समझें। आप जब अपने आराध्य के सामने कोई भी विनती के लिए खड़े होते हैं, हाथ जोड़े और आंखों में उम्मीद का पानी लिए तो उस समय आप सिर्फ यही चाहते हैं कि आपकी बात वो सुन लें, जिसके सामने आप खड़े हैं। उस समय सिर्फ आपका आराध्य होता है आपके सामने और आप दोनों नितांत अकेले। वो विनती, वो प्रार्थना आप ढिंढोरा पीट कर पूरी दुनिया को तो नहीं सुनाते न? बस यही है धर्म। इसके आगे जिसकी जो मर्जी जोड़ता चला जाए, सब स्वीकार्य है, मगर सिर्फ वहीं तक जहाँ किसी और के अधिकारों में बाधा न पहुंचे।

एक होता है धर्म और दूसरा होता है पांथिक, मजहबी रूढ़िवादिता। दोनों ही निहायत अलग मुद्दे हैं। जब आप शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो रूढ़िवादिता जैसी बेड़ियों को आप खुद ही धीरे-धीरे उतार फेंकते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के स्कूल और कॉलेज किसी धर्म विशेष या रूढ़ियों पर नहीं चलते। स्कूल, कॉलेज का महती कार्य एवं उद्देश्य हमारी समझ को परिष्कृत एवं परिमार्जित करना है। इसी उद्देश्य पर चलते हुए शैक्षिक संस्थान सब पर समान रूप से लागू होने वाले नियम/उपनियम बनाते हैं। संस्थान में प्रवेश लेने वाला स्वयमेव इस बात से आबध्द हो जाता है कि वह उन नियमों के हिसाब से ही चलेगा। अब अगर, उसे किसी नियम से आपत्ति है तो यह उसके और उसके संस्थान के बीच का मामला है।

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असल मुद्दा यहीं से शुरू होता है। शैक्षणिक संस्थानों और विद्यार्थियों के बीच के मुद्दे में धर्म, सम्प्रदाय और विशेषकर राजनीतिक पार्टियों का, महज अपने निहित स्वार्थ हेतु कूद पड़ना कहीं से सही नहीं है। ऐसी बातों को प्रश्रय देने का सीधा- सीधा निहितार्थ यही है कि धर्म के आधार पर समाज का बँटवारा किया जा सके। शिक्षा के मन्दिरों में जहाँ हम इकबाल का लिखा हुआ गीत एक सुर में गाना सीखते हैं कि- “हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा”

वहां धार्मिक वैमनस्यता की विष बेल रोपना स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस तरह तो एक नई और बेहद विध्ध्वंसक परम्परा की शुरूआत हो जाएगी। इस तरह आगे चलकर हर विद्यार्थी अपने लिए अलग तरीके की सुविधाओं की माँग कर सकता है। समानता, समरसता का पाठ पढ़ाने के लिए खोली गईं संस्थाएं राजनीति का अखाड़ा बन कर रह जाएंगी। शिक्षा का असली उद्देश्य ही बाधित हो सकता है, इसकी पूरी सम्भावना है।

आज जब पूरे विश्व में महिलाएं आजादी के लिए खड़ी हो रही हैं। पुरानी, घिसी पिटी और दकियानूसी रूढ़ियों को खुद ही ठोकर मार रही है। ऐसे में, ऐसी बातों के लिए अधिकारों की मांग उठाना जो बातें स्वयं में ही मानव अधिकारों के हनन जैसी हो, हास्यास्पद ही है। खड़े ही होना है तो और बेहतर शिक्षा के लिए खड़े होइए। मुद्दा उठाना ही है तो धर्म में प्रचलित वाहियात रिवाजों का उठाइये जिनमें आप महिला नहीं महज़ एक, सामान की तरह उठा कर घर के बाहर फ़ेंक दी जाती है। खुद से खुद के लिए खड़े होइए, किसी राजनीतिक पार्टी का मोहरा मत बनने दीजिए खुद को।

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ठीक से याद कीजिए, पिछले साल जब कोरोना सबको लील रहा था क्या उसने जाति, पंथ और मजहब देखा था? याद कीजिए, आपकी मदद को कौन आगे आया था? ये राजनीति की रोटी सेंकने वाले, धर्म के नाम पर हमें आपस में लड़ाने वाले उस समय आए थे क्या? नहीं। उस समय सिर्फ एक ही धर्म आगे आया था ‘इन्सानियत।’ यही एक धर्म है जिसको मानिए और भरोसा कीजिए। यही एक धर्म है जो हमारी शैक्षिक संस्थाए। हमें सिखाना चाहती है।। पढ़ लिख कर चाहे कुछ बनें या न बनें, इन्सान जरूर बनिए, जानवर नहीं कि जहां जाति- धर्म के नाम पर कीचड़ दिखा लोटने लगे।

(लेखिका सा​माजिक चिंतक हैं)
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)

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