कुछ लोग भगवान नहीं होते पर उनके कारण भगवान के महात्म्य को जनमानस स्वीकार करता है। उन्नाव में गंगा के किनारे एक बहुत बिलक्ष्ण वीर राजा का किला था। राजा का नाम था राव रामबक्स सिंह। दोनों हाथों से तलवार चलाने में निपुण यह शूरवीर जब घोड़े पर सवार होकर निकलता था तो शत्रु की छाती कॉप उठती थी। 1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध एक बड़ी क्रान्ति हुई। कुछ छद्म इतिहासकार भारत के लोगों द्वारा भारत विरोधी विदेशी आक्रान्ताओं को खदेड़ने के लिए इस महान क्रान्ति को गदर, बगावत और देश विरोधी राजाओं के हिंसक आन्दोलन जैसे कपटपूर्ण शब्दों से परिभाषित करके कलंकित करने के प्रयत्न करते रहे हैं।
वस्तुतः यह भारत की अन्तरात्मा की हुँकार थी, जिसके कारण कायर अंग्रेज देशभर से भाग कर इंग्लैण्ड चले गये थे। पहले तो अंग्रेजों ने सैन्य बल से इस क्रान्ति को कुचलने का भरसक प्रयत्न किया। पर भारत के वीरों ने उन्हें अपने देश की माटी का मोल क्या होता है अपनी तलवार की धार से उनके सीनों पर लिख दिया था। एक वर्ष बाद 1858 में भारत के ही कुछ चाटुकारों के आमन्त्रण पर फिर से लौटे थे। यह कहानी अलग है।
क्रान्ति की चिनगारी ने कानपुर और उन्नाव से लेकर रायबरेली, प्रतापगढ़, प्रयाग तक भयंकर ज्वाला का काम किया था। कानपुर में नानाराव पेशवा, तात्या टोपे के अतिरिक्त अनगिन वीरों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। उनके अत्याचारों का ऐसा उत्तर दिया कि उत्तर प्रदेश की इस महानगर से अंग्रेज जान बचाकर भागे। कानपुर से प्रयाग की ओर जाने वाले सारे मार्ग अवरुद्ध थे, तो गांगा नदी का रास्ता चुना। नाव पर सवार होकर पूर्व दिशा की ओर अंग्रेजों के झण्ड निकल पड़े। यह अंग्रेज सब प्रकार से अस्त्र शास्त्रों से युक्त थे। अपने साथ एकत्र किया हुआ लूट का माल सोना-चाँदी, रत्न, अभूषण भी नावों में भरे थे। प्रशिक्षित सैन्य बल भी था।
कानपुर के वीर सेनानियों से सूचना पाकर डौड़ियाखेड़ा के किले में राजा राव रामबक्स ने तत्काल अपने वीर सेना नायकों की बैठक आयोजित की। डौड़ियाखेड़ा का राज्य बहुत बड़ा नहीं था। राजा के सैन्यबल की विशिष्टता यह थी कि अधिकांश सेनानी गाँवों में कृषि और अपने अन्य व्यवसायों से लगे रहते थे। एक गाँव से दूसरे गाँव तक सूचना भेजने के लिए किले का नगाड़ा, शंख ध्वनि और बिगुल सुनकर अन्य गांवों के प्रशिक्षित सेनानी ऐसी ही ध्वनि करते हुए सुदूर गाँवों तक सूचना सम्प्रेषित कर देते थे।
नदी के रास्ते डौंडियाखेड़ा से कानपुर की दूरी लगभग 35 किलोमीटर है। नदी के तेज बहाव के साथ कुशल नाविकों द्वारा संचालित अंग्रेजों की नावें तीव्रता से बढ़ती आ रही थी। कुछ नावें सूर्यास्त के पहले डाँड़ियाखेड़ा राज्य के तट पर दिखायी देने लगीं। राजा राव रामबक्स ने अपने वीरों को आदेश दे रखा था कि किसी आंग्रेज महिला या बच्चे के साथ अन्याय न होने पाये। कोई अंग्रेज सैनिक बचकर न जाने पाये। उनके अस्त्र शस्त्र छीन लिये जाये। नदी की धारा से महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित बाहर लाया जाय। उस सम्पदा को एक स्थान पर एकत्रित किया जाये जो भारत का है। जिसे उन्होंने भारत के नागरिकों से लूटा है, इसपर उनका कोई अधिकार नहीं है। इसे डौड़ियाखेड़ा के राजकोष में जमा किया जाये।
गंगा की धारा में बैसवारे के वीर कूद पड़े। महिलाएं और बच्चे बाहर ले आये गये। राजा के आदेश का अक्षरश: पालन हुआ। भोर तक इन महिलाओं और बच्चों को उनके कुछ बुजुर्ग अंग्रेजों की देख रेख में दो दर्जन से अधिक नावों पर बैठाकर प्रयाग की ओर जाने दिया गया। उन्नाव की सीमा तक इन पर कोई आक्रमण ने होने पाये। साथ ही गेगासो जैसे क्षेत्रों के बैसवारा क्षेत्र के वीरों को सूचना दी गई कि इनके प्राण नहीं लेने का आदेश राजा राव रामबक्स ने दिया है। धारा के बीच ये नावें सीधे गंतव्य की ओर बढ़ती चली गई। राजा ने एक उदारता और इनके प्रति बरती। इन्हें इतना धन दिया कि कई दिनों तक इन्हें भूखा न रहना पड़े। प्रयाग पहुंचने पर वहां के अंग्रेज अधिकारी इन्हें अपने देश ले जाने के लिए कोलकाता ले गये। अंग्रेजों ने स्वयं अपने देश इंग्लैण्ड जाकर डौड़ियाखेड़ा के महान राजा राव रामबक्स की महानता के किस्से सुनाये।
1857 का यह वीर योद्धा बाद में अंग्रेजों की क्रूरता के साथ ही भारत के ही कुछ लोगों के छल का ग्रास बन गया। उन्हें मुखबिर के माध्यम से अंग्रेजों ने पकड़ा। डौंडियाखेड़ा लाया गया। बरगद के पेड़ पर उन्हें फांसी पर लटकाया। डौड़ियाखेड़ा के निकट एक प्राचीन मन्दिर है। जहां चन्द्रिका और अम्बिका माता की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं। वर्ष भर लाखों लोगों का आवागमन रहता है। राजा राव रामबक्स सिंह नित्य प्रति इस मन्दिर में उपासना करने पहुँचते थे। वहाँ के मन्दिर के समक्ष खुले स्थानों पर बैठकर मिलने आये प्रजाजनों से वार्ता करते थे। दीन दुखी लोगों की सहायता करते थे। किसी का निरादर करना उनके स्वभाव में नहीं था। अपने जीवन में शुचिता को महत्व देते थे। एक रानी से संतान नहीं हुई तो दूसरी रानी की चाह कभी मन में नहीं लाये।
राजमहल में बैठक न्याय करने की चित्तवृत्ति से दूर रहते थे। दिनभर अपने राज्य की सीमाओं के भीतर भ्रमण करते थे। उनके साथ बहुत छोटी सैन्य टुकड़ी चलती। जहां जाते स्थानीय वीर उन के संग हो लेते। दूसरे गाँवों की सीमा तक छोड़कर लौट जाते। ऐसा अनूठा राजा, जिसके लिए प्रजाजन सबसे बड़ी पूँजी थे। मातृ भूमि के प्रति इतने अनुरक्त रहते थे कि 1857 के पहले तक उनकी राज्य की सीमा में किसी अंग्रेज को स्वच्छन्द घूमने की स्वतंत्रता नहीं थी। न्याय प्रणाली इतनी पुष्ट थी कि गाँवों की चौपालों में एकत्र होकर लोग अपने विवाद हल कर लेते। राजा राव रामबक्स सिंह ने भाईचारे की जो राह दिखाई थी बैसवारा क्षेत्र में वह एक संस्कृति बन गई। आज भी बैसवारा की चौपालें सम्मति, सहमति और सर्वानुमति के आचरण पर विश्वास करती हैं। समय बदला है पर भावना नहीं बदली। कितना अच्छा होता कि यदि ऐसे राजाओं की रीति, नीति, संवाद करने की शैली और निष्पृह भाव से सेवा करने की चित्तवृत्ति वर्तमान व्यवस्था के अधिकारियों और नेताओं को रास आ जाती। जनतंत्र में ऐसे राजनेताओं की स्मृति को सम्मान मिलना चाहिए। इससे सामाजिक समझ बढ़ेगी।
राजा राव रामबक्स संग्रही वृत्ति के लोभी राजा नहीं थे। उनके न रहने पर उनके सगे, सम्बन्धियों, वन्शजों के हाथ कुछ नहीं लगा। बरगद की डाली पर जब उन्हें गर्दन बांधकर लटकाया गया तो अंग्रेजों के विरुद्ध स्थानीय लोगों ने आक्रोश जताया। यह बात इतिहास के पन्नों से छिपा ली गयी कि उस दिन गंगा के तट पर इस राजा के प्रति भक्ति भाव रखने वाले लोगों के प्रति निर्दयी अंग्रेजों ने बल प्रयोग भी किया था। कितने लोगों के प्राण हर लिये गये थे भला अंग्रेज क्यों बताते?
डौंडियाखेड़ा की किले के साथ 2014 से पहले केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने उत्पाती कार्रवाई की। किसी कुविचारी व्यक्ति की निराधार सूचना पर किले की पावन भूमि को धन के लालच में विदीर्ण किया गया। किले को अंग्रेजों ने तिल तिलकर तोड़ा था। उनके मन में भी लोभ था। उन्हें लगता था कि डौड़ियाखेड़ा के इस लोकप्रिय राजा के महल में अकूत स्वर्ण मुद्राएं और रत्न आभूषण आदि मिलेंगे। कानपुर से कोलकाता तक गंगा की जलधारा से बड़ी बड़ी नावों के माध्यम से 1857 के पहले तक व्यापार हुआ करता था। डौड़ियाखेड़ा के तट से भी बुंदेलखंड और बैसवारा के व्यापारी विशाल नावों के माध्यम से बाहर माल भेजा और मंगाया करते थे। अन्य के साथ विभिन्न धातुओं के बर्तन और वस्त्र इनमें प्रमुख होते थे।
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डौंडियाखेड़ा तलवार और अन्य अस्त्रों के निर्माण का एक केन्द्र भी था। बैसवारा सदैव से साहित्य का सुन्दर उपवन कहा जाता है। यहां अनेक महान लेखक, कवि, साहित्यकार और शिल्पी हुए हैं। दूसरे राज्यों से ऐसे लोगों का यहाँ आवागमन रहा है। राजा राव रामबक्स कला, संस्कृति, ज्ञान के ज्वाज्वल्यमान प्रकाश स्तम्भ थे। ऐसे महान वीर सपूत को बैसवारा क्षेत्र की माटी अपनी स्मृतियों में बसाये हुए है। उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष कृतज्ञय समाज मेले का आयोजन करता है। किले की भूमि पर कुदाल चलाने वाले खाली हाथ लौट गये। इस महानायक के किले की रज रज से उन कुदालों की धमक सुनायी पड़ती है। गंगा नदी इस किले की तट रेखा को निरन्तर सिंचित करती रहती है। किले की रज को लेकर अपने जल में धारण करती है।
राजा राव रामबक्स नित्य गंगा के जल से ही प्यास बुझाते थे। सम्भवतः इसी लिये डौंडियाखेड़ा के तट को गंगा ने कभी नहीं छोड़ा। माता चन्द्रिका और अम्बिका के तट से भी गंगा की धारा कभी विरत नहीं होती। यह एक विलक्षण सच है। मनुष्य भले ही कृतघ्न बन जाय। प्रकृति के प्राणयुक्त अवयवों जिनमें माटी और नदी अविस्मरणीय है कि यह कभी किसी को उलाहने देने का अवसर नहीं देतीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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