उत्तर प्रदेश में अवसरवादी राजनीति की भगदड़ अपने चरम पर है। एक माहौल बनाया जा रहा है, चुनाव आचार संहिता लगने के बाद। ऐसा कहा जा रहा है कि भाजपा में भगदड़ मची है। अजीब है यह जुमला। कौन भाजपाई भाग कर कहां गया? जो बाहर से सत्ता का सुख लेने आये थे, वे फिर सरकारी सुख की फिराक में निकल रहे, तो इसमें भाजपा का नाम क्यों लिया जाय। सरकारी सुख लेने वाले जो भी बाहरी हैं वे तो जाएंगे ही अपना-अपना नफा-नुकसान देख कर। भाजपा का कोई भी कार्यकर्ता न कहीं और गया है और न ही जाने वाला है।
जो लोग भी अभी तक उत्तर प्रदेश की सरकार से अलग होकर निकल रहे हैं, यदि वे वास्तव में अपने इस्तीफे की स्क्रिप्ट वाली तकलीफ में थे, तो उन्हें तभी निकल जाना चाहिये था जब चुनाव घोषित नहीं हुए थे अथवा उनकी तकलीफ सरकार में नहीं सुनी जा रही थी। अब निकल कर अपनी पीड़ा बयान करने के क्या अर्थ? ये कितने पीड़ा में हैं, क्या जनता नहीं जानती? गजब की सेवा की आकांक्षा है इनकी। लोकदल में नहीं बनी तो जनता दल, उसमें भी नहीं बनी तो सपा, वहां नहीं बनी तो बसपा, वहां नहीं बनी तो भाजपा और भाजपा में बनता नहीं महसूस हो रहा तो फिर वहां, जहां कुछ बने। देश और जनता की सेवा की इतनी प्रज्ज्वलित जज़्बात तो भारतीय सेना में भी नहीं दिखती। पूरा जीवन सेवा करते-करते ये स्वयं शून्य से शिखर तक पहुँच चुके, लेकिन जिन पीड़ितों, दलितों, गरीबों, पिछड़ों के मसीहा बन कर इन्होंने विविध सत्ताओं में अपनी जोरदार भागीदारी निभाई उन सभी के घरों में गैस, बिजली, पानी, अनाज, दवा और उनके बैंक खाते खुलवाकर कर उन्हें वास्तव में देश की व्यवस्था का हिस्सा कब और किसने बनाया, इस बारे में अलग से लिखने की आवश्यकता नहीं है। यह पब्लिक है, सब जानती है।
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भारत की राजनीति में दलबदल कोई नई बात नहीं है। आखिर ये लोग जो बाहरी दलों से भाजपा में आये थे, तब भी तो इनके दलों में भगदड़ ही रही होगी न। याद कीजिये, देश की आजादी के तत्काल बाद ही किस बेशर्मी से दलबदलू, आयाराम, गयाराम की राजनीति शुरू हो गई थी, जिस पर राजीव गांधी की सरकार में दलबदल विधेयक कानून बनाया गया। लेकिन वह कानून भी अवसरवादियों के आगे पानी भर रहा है। यहां याद दिलाना जरूरी है कि देश मे 1967 के बाद एक रिकॉर्ड कायम हुआ, जिसमें दल बदलुओं के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं थीं तथा 1979 में जनता पार्टी में दल-बदल के कारण चौधरी चरणसिंह प्रधानमंत्री पर आसीन हो गए थे। इसकी वजह से चरणसिंह को भारत का पहला ‘दल-बदलू प्रधानमंत्री’ कहा जाता है। बकौल राजनारायणजी ‘चेयर सिंह’ हर संसदीय दुर्गुण की तरह दलबदल का दोष भी ब्रिटिश संसद से ही दिल्ली आया।
एक बार ब्रिटिश सांसद के पुत्र ने उसने पूछा, ‘डिफेक्टर (दलबदलू) कौन होता है?’ निहायत सुगमता से सांसद पिता ने जवाब दिया, ‘जो हमारे दल में आता है, वह बड़ा राष्ट्रभक्त है। जो हमारी पार्टी छोड़कर जाता है वह देशद्रोही है।’ राष्ट्रवाद की यह अनूठी परिभाषा थी। भारत में यह विधायी पद्धति वर्तमान ठाकरे सरकार के काफी पहले मुंबई में आ चुकी थी। वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा है।
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अब बात करते हैं उत्तर प्रदेश के वर्तमान दलबदल वाली भगदड़ पर। इस समय जो भगदड़ मची है उसमें सभी वे मसीहा हैं जो दर्द से कराह रहे हैं। जिन्हें अपनी जाति और गरीबों की बहुत चिंता है। भाजपा की सरकार का हिस्सा रहते दरअसल इनको पता ही नहीं चला कि कब इनकी राजनीति की मसीहाई आकृति समाप्त हो गई। हो सकता है अभी भी बहुत पंडित भ्रम में हों लेकिन सभी का भ्रम तब टूटेगा, जब नए रण में नए प्रकार से नए अस्त्रों के साथ युद्ध करने के लिए उतरना होगा। उतरना अब मजबूरी भी है। भाजपा की सरकार में पूरे पांच वर्ष तक सरकारी सुख लेने के बाद चुनाव की घोषणा होते ही जिस प्रकार से अवसरवादी रजानीतिक भगदड़ शुरू हुई है उसमें सबसे बड़ा नाम है स्वामी प्रसाद मौर्य का। स्वामी प्रसाद मौर्य ने मंत्री पद व भाजपा से त्यागपत्र देकर अपनी तीसरी पारी समाजवादी पार्टी से शुरू करने का निर्णय लिया है।
स्वामी प्रसाद मौर्य के इस निर्णय से भारतीय जनता पार्टी को कितना नुकसान होगा अथवा समाजवादी पार्टी को कितना लाभ होगा इसका उत्तर तो आने वाले चुनाव में मिल ही जाएगा, किंतु भाजपा से स्वामी प्रसाद मौर्य का मोह भंग क्यों हुआ, यह जानना आवश्यक है। स्वामी प्रसाद मौर्य स्वयं उत्तर प्रदेश सरकार मे 5 वर्ष से मंत्री रहे हैं और उनकी बेटी उत्तर प्रदेश से ही लोकसभा सांसद है। उसके बावजूद स्वामी प्रसाद मौर्य प्रसन्न नहीं है वह चाहते हैं कि उनके बेटे को भी विधानसभा का टिकट मिले और परिवार के शेष सदस्यों को भी सत्ता का सुख प्राप्त हो, तभी माना जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी दलितों, पिछड़ों और वंचित वर्गों की हितैषी पार्टी है। किंतु भारतीय जनता पार्टी राजनीति में परिवारवाद का विरोध करती रही है और एक हद तक परिवारवाद से अलग भी रही है। इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं।
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अतः भाजपा ने यह स्वीकार नही किया कि उनके परिवार में किसी अन्य को भी टिकट दिया जाए, इसी बात से नाराज होकर स्वामी प्रसाद मौर्य ने भाजपा से त्यागपत्र देकर समाजवादी पार्टी को अपना लिया। यह सभी को पता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य अथवा उनकी बेटी का अपनी सीटों पर मोदी लहर में विजयी होना यह उनका अपनी लोकप्रियता न होकर मोदी का प्रताप था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)