Pauranik Katha: जामवन्त (Jamvant) को ऋक्षपति कहा जाता है। यह ऋक्ष बिगड़कर रीछ हो गया जिसका अर्थ होता है भालू अर्थात भालू के राजा। लेकिन क्या वे सचमुच भालू मानव थे? रामायण आदि ग्रंथों में तो उनका चित्रण ऐसा ही किया गया है। ऋक्ष शब्द संस्कृत के अंतरिक्ष शब्द से निकला है। दरअसल दुनिया भर की पौराणिक कथाओं में इस तरामंडल को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, लेकिन सप्तऋषि तारामंडल मंडल को यूनान में बड़ा भालू (larger bear) कहा जाता है। इस तरामंडल के संबंध में प्राचीन भारत और यूनान में कई दंतकथाएं प्राचलित हैं।

पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वशिष्ठ, अत्रि, विश्वामित्र, दुर्वासा, अश्वत्थामा, राजा बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कण्डेय ऋषि, वेद व्यास और जामवन्त (Jamvant) आदि कई ऋषि, मुनि और देवता सशरीर आज भी जीवित हैं। कहते हैं कि जामवन्तजी बहुत ही विद्वान् हैं। वेद उपनिषद् उन्हें कण्ठस्थ हैं। वह निरन्तर पढ़ा ही करते थे और इस स्वाध्यायशीलता के कारण ही उन्होंने लम्बा जीवन प्राप्त किया था। परशुराम और हनुमान के बाद जामवन्त ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके तीनों युग में होने का वर्णन मिलता है और कहा जाता है कि वे आज भी जीवित हैं। लेकिन परशुराम जी और हनुमान जी से भी लंबी आयु है जामवन्तजी कि क्योंकि उनका जन्म सतयुग में राजा बलि के काल में हुआ था। परशुराम से बड़े हैं जामवन्त और जामवन्त से बड़े हैं राजा बलि।

रामायण काल में हमारे देश में तीन प्रकार की संस्कृतियों का अस्तित्व था। उत्तर भारत में आर्य संस्कृति जिसके प्रमुख राजा दशरथ थे, दक्षिण भारत में अनार्य संस्कृति जिसका प्रमुख रावण था और तीसरी संस्कृति देश के मध्य भारत में आरण्यक संस्कृति (जनजातीय और आदिवासी) के रूप में अस्तित्व में थी जिसके संरक्षक महर्षि अगस्त्य मुनि थे। अगस्त मुनि, वनवासियों के गुरु व मार्ग-दर्शक थे। ऋक्ष और वानर, बाली, सुग्रीव, जामवन्त, हनुमान, नल, नील आदि अगस्त्य मुनि के शिष्य थे।

कहा जाता है कि जामवन्त जी सतयुग और त्रेतायुग में भी थे और द्वापर में भी उनके होने का वर्णन मिलता है। जामवन्त जी एक रीछ थे या किसी देवता की संतान? आखिर जामवन्तजी इतने लंबे काल तक कैसे जीवित रहे? प्राचीन काल में इंद्र पुत्र, सूर्य पुत्र, चंद्र पुत्र, पवन पुत्र, वरुण पुत्र, अग्नि पुत्र आदि देवताओं के पुत्रों का अधिक वर्णन मिलता है। उक्त देवताओं को स्वर्ग का निवासी कहा गया है। एक ओर जहां हनुमानजी और भीम को पवन पुत्र माना गया है, वहीं जामवन्तजी को अग्नि पुत्र कहा गया है।

जामवन्त जी की माता एक गंधर्व कन्या थी। जब पिता देव और माता गंधर्व थीं तो वे कैसे रीछमानव हो सकते हैं? माना जाता है कि देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता के लिए जामवन्त जी का जन्म अग्नि के पुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माता एक गंधर्व कन्या थीं। सृष्टि के आदि में प्रथम कल्प के सतयुग में जामवन्तजी उत्पन्न हुए थे। जामवन्त ने अपने सामने ही वामन अवतार को देखा था। वे राजा बलि के काल में भी थे। राजा बलि से तीन पग धरती मांग कर भगवान वामन ने बलि को चिरंजीवी होने का वरदान देकर पाताल लोक का राजा बना दिया था। वामन अवतार के समय जामवन्तजी अपनी युववस्था में थे। जामवन्त को चिरं‍जीवियों में शामिल किया गया है जो कलियुग के अंत तक रहेंगे।

त्रेतायुग में भी जामवन्त जी बूढ़े हो चले थे। राम के काल में उन्होंने भगवान राम की सहायता की थी। कहते हैं कि जामवन्तजी समुद्र को लांघने में सक्षम थे लेकिन त्रेतायुग में वह बूढ़े हो चले थे। इसीलिए उन्होंने हनुमानजी से इसके लिए विनती की थी कि आप ही समुद्र लांघिये। वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में जामवन्त जी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जब हनुमानजी अपनी शक्ति को भूल जाते हैं तो जामवन्तजी ही उनको याद दिलाते हैं। रामायण के अनुसार वानर सेना में अंगद, सुग्रीव, परपंजद पनस, सुषेण (तारा के पिता), कुमुद, गवाक्ष, केसरी, शतबली, द्विविद, मैंद, हनुमान, नील, नल, शरभ, गवय लोग शामिल थे। माना जाता है कि जामवन्तजी आकार-प्रकार में कुंभकर्ण से तनीक ही छोटे थे। जामवन्त को परम ज्ञानी और अनुभवी माना जाता था। उन्होंने ही हनुमानजी से हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का वर्णन किया था जिसमें से एक संजीविनी थी।

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मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्॥- युद्धकाण्ड 74-33

राम-रावण के युद्ध में जामवन्तजी राम जी की सेना के सेनापति थे। युद्ध की समाप्तिे के बाद जब भगवान राम विदा होकर अयोध्या लौटने लगे तो जामवन्तजी ने उनसे कहा कि प्रभु इतना बड़ा युद्ध हुआ मगर मुझे पसीने की एक बूंद तक नहीं गिरी, तो उस समय प्रभु श्रीराम मुस्कुरा दिए और चुप रह गए। श्रीराम समझ गए कि जामवन्तजी के भीतर अहंकार प्रवेश कर गया है। जामवन्त जी ने कहा, प्रभु युद्ध में सबको लड़ने का अवसर मिला परंतु मुझे अपनी वीरता दिखाने का कोई अवसर नहीं मिला। मैं युद्ध में भाग नहीं ले सका और युद्ध करने की मेरी इच्छा मेरे मन में ही रह गई। उस समय भगवान श्री राम ने जामवन्तजी से कहा, तुम्हारी ये इच्छा अवश्य पूर्ण होगी जब मैं अगला अवतार धारण करूंगा। तब तक तुम इसी स्थापन पर रहकर तपस्या करो।

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