Pauranik Katha: पौराणिक मान्यता के अनुसार माँ गंगा पृथ्वी पर आने से पहले स्वर्ग में बहती थी, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि गंगा माता को पृथ्वी पर आना पड़ा। इक्ष्वाकु वंश में सगर नाम के एक महान प्रतापी राजा हुए। सगर की दो स्त्रियाँ थीं। एक का नाम केशिनी और दूसरी का नाम सुमति था। ये दोनों विदर्भराज काश्यप की पुत्रियां थीं। एक समय राजा सगर की दोनों पत्नियों द्वारा प्रार्थना करने पर भृगुवंशी और त्रिकालदर्शी और्व मुनि ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वर दिया।

उन्होंने क्षण भर ध्यान में स्थित होकर केशिनी और सुमति से कहा– तुम दोनों में से एक रानी तो एक ही पुत्र प्राप्त करेगी किन्तु वह वंश को चलाने वाला होगा। परन्तु दूसरी केवल संतान की इक्षा पूर्ति के लिए साठ हजार पुत्रों को जन्म देगी। तुम लोग अपनी इक्षानुसार इनमें से एक-एक वर मांग लो। और्व मुनि का यह वचन सुनकर केशिनी ने वंश परम्परा चलाने के लिए एक ही पुत्र का वरदान माँगा तथा रानी सुमति के साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए।

केशिनी के पुत्र का नाम असमञ्जस था। असमञ्जस बुरी प्रवृत्ति तथा दुष्ट स्वभाव का था। उसकी देखा देखी सगर के सभी पुत्र बुरे आचरण करने लगे। यह देखकर बाहु पुत्र सगर बहुत दुखी हुए। कुछ समय बाद असमञ्जस के अंशुमान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो बड़ा धर्मात्मा, गुणवान और शास्त्रों का ज्ञाता था। वह सदा अपने पितामह सगर की सेवा में संलग्न रहता था। उधर सगर के सभी दुराचारी पुत्र संसार में उपद्रव करने लगे। वे धार्मिक अनुष्ठान करने वाले लोगों के काम में सदा विघ्न डाला करते थे। वे दुष्ट राजकुमार सदा मद्यपान करते थे।

उन्होंने साधु पुरुषों की जीविका छीन ली और सदाचार का नाश कर डाला। यह सब देखकर इन्द्र आदि देवता अत्यंत दुःख से पीड़ित हो इन सगर पुत्रों के नाश का कोई उत्तम उपाय सोचने लगे। इसी बीच में राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया। उस यज्ञ में प्रयुक्त घोड़े को देवराज इन्द्र ने चुरा लिया और पाताल में जहाँ कपिल मुनि रहते थे, वहीँ ले जाकर बांध दिया। इन्द्र के द्वारा चुराए हुए उस अश्व को खोजने के लिए राजा सगर के सभी पुत्र पृथ्वी पर घूमने लगे। जब पृथ्वी पर कहीं भी उन्हें वह घोड़ा दिखाई नहीं दिया तब वे पाताल में जाने को उद्यत हुए। फिर तो वे सारी पृथ्वी को खोदने लगे। एक एक ने एक एक योजन भूमि खोद डाली और खोदी हुई मिटटी को समुद्र के तट पर बिखेर दिया और उसी द्वार से वे सभी सगर पुत्र पाताल लोक में जा पहुँचे।

उस समय वे सब के सब क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे। पाताल में पहुँचकर उन्होंने सब ओर अश्व को ढूँढना आरम्भ किया। खोजते खोजते वहाँ उन्हें ध्यानमग्न परम तेजस्वी भगवान कपिल के दर्शन हुए और उनके पास ही घोड़ा भी दिखाई दिया। फिर तो वे अत्यंत क्रोध में भर गए और बिना विचारे ही कपिल मुनि को मार डालने के उद्देश्य से दौड़े। उस समय आपस में एक दूसरे से वे इस प्रकार कह रहे थे– इसे मार डालो। बांध लो। पकड़ो। देखो, घोड़ा चुराकर यहाँ साधुरूप में बगुले की तरह ध्यान लगा कर बैठा है। इस तरह की बातें करते हुए वे अनेक प्रकार से कपिल मुनि का अपमान करने लगे। उस समय भगवान कपिल अपनी इन्द्रियों और बुद्धि को आत्मा में स्थिर करके ध्यान में तत्पर थे।

इसलिए उन्हें सगर पुत्रों की करतूत का कुछ भी पता नहीं चला। सगर पुत्रों की मृत्यु निकट थी इसलिए उन लोगों की बुद्धि मारी गयी थी। वे मुनि को लातों से मारने लगे। कुछ लोगों ने उनकी बाहें पकड़ लीं। तब मुनि की समाधी भंग हो गयी। उन्होंने विस्मित होकर लोक में उपद्रव करने वाले सगर पुत्रों को लक्ष्य करके गम्भीर भाव से कहा– जो ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हैं, जो भूख से पीड़ित हैं, जो कामी हैं तथा जो अहंकार से मूढ़ हो रहे हैं। ऐसे मनुष्यों को विवेक नहीं होता। यदि दुष्ट मनुष्य सज्जनों को सताते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है? नदी का वेग किनारे पर उगे हुए वृक्षों को भी गिरा देता है। जहाँ धन है, जवानी है तथा परायी स्त्री भी है, वहाँ सब अंधे और मुर्ख बने रहते हैं। दुष्ट के पास लक्ष्मी हो तो वह लोक का विनाश करने वाली ही होती है। जैसे वायु, अग्नि की ज्वाला को बढ़ाने में सहायक होता है और जैसे दूध साँप के विष को बढ़ाता है उसी प्रकार दुष्ट की लक्ष्मी उसकी दुष्टता को बढ़ा देती है।

ऐसा कहकर कपिल मुनि ने अपने नेत्रों में अग्नि प्रकट की। उस आग ने समस्त सगर पुत्रों को क्षणभर में ही जलाकर भस्म कर डाला। उस भीषण अग्नि से संतप्त होकर नाग, राक्षस और अन्य जीवों ने शीघ्रता से समुद्र में प्रवेश करके अपने प्राणों की रक्षा की। तत्पश्चात एक देवदूत ने राजा सगर के यज्ञ में आकर उन्हें इस घटना की जानकारी दी। राजा सगर सब शास्त्रों के ज्ञाता थे। यह सब वृत्तांत सुनकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा– उनके कर्मों ने ही उन दुष्टों को दंड दे दिया। माता, पिता, भाई, पुत्र जो भी पाप करता है वही शत्रु माना गया है। यही शास्त्रों का निर्णय है।

राजा सगर ने अपने पुत्रों का नाश होने पर भी शोक नहीं किया। क्योंकि दुराचारियों की मृत्यु साधु पुरुषों के संतोष का कारण होती है। पुत्रहीन पुरुषों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। धर्मशास्त्र की ऐसी आज्ञा होने के कारण महाराज सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को ही अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया। इसके बाद राजा सगर ने अंशुमान को अश्व ढूँढ लाने के कार्य में नियुक्त किया। अंशुमान कपिल मुनि के आश्रम पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। फिर दोनों हाथ जोड़कर बोले- ब्रह्मण! मेरे पिता के भाइयों ने यहाँ आकर जो दुष्टता की है, उसे आप क्षमा करें, क्योंकि साधु पुरुष सदा दूसरों के उपकार में लगे रहते हैं और क्षमा ही उनका बल है।

संत महात्मा दुष्ट जीवों पर भी दया करते हैं। चन्दन को काटा जाये या घिसा जाये, वह अपनी सुगंध से सबको सुवासित ही करता है। साधु पुरुषों का भी ऐसा ही स्वभाव होता है। हे पुरुषोत्तम, आपके गुणों को जानने वाले मुनिगण ऐसा मानते हैं कि आप क्षमा, तपस्या तथा धर्माचरण द्वारा समस्त लोकों को शिक्षा देने के लिए इस भूतल पर अवतरित हुए हैं। अंशुमान के इस प्रकार स्तुति करने पर कपिल मुनि का मुख प्रसन्नता से खिल उठा और वे बोले– हे निष्पाप राजकुमार, मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। वर माँगो।

मुनि के ऐसा कहने पर अंशुमान ने उनको प्रणाम करके कहा– भगवन, हमारे इन पितरों को ब्रह्म लोक में पहुँचा दें। तब कपिल मुनि अंशुमान पर प्रसन्न होकर आदरपूर्वक बोले– राजकुमार! तुम्हारा पौत्र यहाँ गंगा जी को लाकर अपने पितरों को स्वर्गलोक पहुँचायेगा। वत्स, तुम्हारे पौत्र भगीरथ द्वारा लायी हुई पुण्यसलिला गंगा नदी इन सगर पुत्रों का पाप धोकर इन्हें परम पद की प्राप्ति करा देगी। बेटा, इस घोड़े को ले जाओ जिससे तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। तब अंशुमान अश्व सहित अपने पितामह के पास लौट गए और उन्हें सब समाचार सुनाया।

सगर ने उस अश्व के द्वारा अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किया और भगवान विष्णु की आराधना करके वैकुण्ठधाम को चले गए। महाराज सगर के बाद अंशुमान राजा बने, परंतु उन्हें अपने चाचाओं के मुक्ति की चिन्ता बनी रही। कुछ समय के बाद अपने पुत्र दिलीप को राज्य का कार्यभार सौंपकर वे वन में चले गये तथा गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने लगे और तपस्या में ही उनका शरीरान्त भी हो गया। महाराज दिलीप ने भी अपने पुत्र भगीरथ को राज्यभार देकर स्वयं पिता के मार्ग का अनुसरण किया। उनका भी तपस्या में ही शरीरान्त हुआ, परंतु वे भी गंगाजी को पृथ्वी पर न ला सके।

महाराज दिलीप के बाद भगीरथ ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या की। अंत में तीन पीढ़ियों की इस तपस्या से प्रसन्न हो पितामह ब्रह्मा ने भगीरथ को दर्शन देकर वर माँगने को कहा। भगीरथ ने कहा– हे पितामह! मेरे साठ हजार पूर्वज कपिल मुनि के शाप से भस्म हो गये हैं, उनकी मुक्ति के लिये आप गंगाजी को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें। ब्रह्माजी ने कहा– मैं गंगा को पृथ्वीलोक पर भेज तो अवश्य दूँगा, पर उनके वेग को कौन रोकेगा, इसके लिये तुम्हें देवाधिदेव भगवान शंकर की आराधना करनी चाहिये। भगीरथ ने एक पैर पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना शुरू कर दी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने गंगाजी को अपनी जटाओं में रोक लिया और एक छोटी धारा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया।

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इस प्रकार गंगाजी पृथ्वी की ओर चलीं। अब आगे-आगे राजा भगीरथ और पीछे-पीछे गंगाजी थीं। मार्ग में जह्नु ऋषि का आश्रम पड़ा, गंगाजी उनके कमण्डलु, दण्ड आदि बहाते हुए जाने लगीं। यह देखकर जह्नु ऋषि ने उन्हें पी लिया। कुछ दूर जाने पर भगीरथ ने पीछे मुड़कर देखा तो गंगाजी को न देख वे ऋषि के आश्रम पर आकर उनकी वंदना करने लगे। प्रसन्न हो ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गंगाजी को दाहिने कान से निकाल दिया। इसलिये देवी गंगा ‘जाह्नवी‘ नाम से भी जानी जाती हैं। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हें ‘भागीरथी‘ भी कहा जाता है।

इसके बाद भगवती गंगा मार्ग को शस्य-श्यामल करते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचीं, जहाँ भगीरथ के साठ हजार पूर्वज भस्म की ढ़ेरी बने पड़े थे। भगीरथ ने पवित्र गंगा जल से अपने पूर्वजों का उद्धार किया और वे सभी गंगा जल के स्पर्श मात्र से दिव्य लोकों को चले गये।

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