Pauranik Katha: भौमासुर नाम का एक असुर था। भौमासुर का एक नाम नरकासुर भी था। वह मूर्तिमती पृथ्वी का पुत्र था। असुर सदैव ही द्रोही होते हैं। अत्यधिक शक्तिशाली हो जाने पर भौमासुर ने वरुण देव के सिंहासन का छत्र छीन लिया था। देवताओं की माता अदिति के कर्णफूल लेकर भौमासुर ने स्वर्ग लोक पर विजय प्राप्त कर ली थी। उसके दिनोंदिन बढ़ते उत्पातों के बारे में भगवान श्री कृष्ण को सूचित करने इंद्रदेव स्वर्ग लोक से द्वारिका आये। इंद्र देव से भौमासुर के विषय में सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ गरूड़ पर सवार होकर तत्काल ही भौमासुर के निवास स्थान की ओर प्रस्थान किया।
निम्न योनि से लेकर उच्च योनि देवता आदि सभी श्री भगवान की कृपा पर ही आश्रित हैं, किन्तु अहंकार वश भूल जाते हैं और खुद को ही कर्ता धर्ता समझ कर उत्पात शुरू कर देते हैं। भगवान श्री कृष्ण जब असुर के समक्ष आए तो शक्तिशाली असुर और उसकी सेना भगवान पर खड्ग, गदा, भाला, बाण और त्रिशूल आदि अनेक आयुधों की वर्षा करने लगे। श्री भगवान की असीम शक्ति का उसे तनिक भी अनुमान न था। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसकी समस्त सेना, सेनापति और आयुधों को नष्ट कर दिया।
जब उसने देखा की श्री भगवान ने उसके सभी सैनिकों सेनापतियों का संहार कर दिया, तो वह अत्यंत क्रुद्ध हुआ। और छल पूर्वक युद्ध करने लगा। श्री भगवान गरुड़ की पीठ पर बैठ युद्ध कर रहे थे। भौमासुर ने अनेक प्रकार के छल का प्रयोग किया, किन्तु उसको समझ आने लगा कि उसका कोई भी छल श्री कृष्ण पर काम नहीं करेगा और उसे ज्ञात हो गया श्री कृष्ण का वध करने की समस्त चातुरी में उसे निराशा ही प्राप्त होगी। फिर भी उसने त्रिशूल लेकर अंतिम बार श्री कृष्ण पर प्रहार करने का प्रयास किया। त्रिशूल उन तक आ पाता इसके पूर्व ही श्री भगवान के सुदर्शन चक्र ने भौमासुर का सिर काट दिया। कर्णफूलों और मुकुट से सुशोभित उसका सिर भूमि पे गिर पड़ा। संत जन श्री भगवान का यशोगान करने लगे और स्वर्ग के देवता पुष्प वर्षा करने लगे।
इस समय मूर्तिमती पृथ्वी भगवान श्री कृष्ण के समक्ष आई। उन्होंने बैजंती रत्नों की माला से श्री भगवान का स्वागत किया और सम्पूर्ण जगत के स्वामी भगवान श्री कृष्ण की स्तुति करने लगीं। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया और अत्यंत भक्तिभाव पूर्वक कहा, शंख, चक्र, गदा और पद्म के चारों चिन्हों से विभूषित समस्त देवताओं के ईश्वर आपको मेरा सादर प्रणाम है। प्रिय भगवान आप परमात्मा हैं! अपने भक्तों की कामना संतुष्ट करने के हेतु आप अपने विभिन्न दिव्य अवतारों में पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं। आप समस्त प्रकार के धर्म यश, सम्पति ज्ञान और वैराग्य के सागर हैं। नाथ आप अजन्मा हैं फिर भी वासुदेव के पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं। आप समस्त कारणों के परम कारण है। प्रिय भगवान जहाँ तक तीनों देवताओं- ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश का प्रश्न है वे भी आपसे स्वतंत्र नहीं हैं। जब सृष्टि के निर्माण की आवश्यकता होती है तब आप रजोगुणी आविर्भाव ब्रम्हा की रचना करते है। जब आप सृष्टि का पालन करना चाहते है तब श्री विष्णु के रूप में विस्तार करतें हैं।
इसी भांति आप तमोगुण के स्वामी शिव के रूप में प्रकट होते हैं और समस्त सृष्टि का संहार करते हैं। प्रिय भगवान आप ही प्रकृति है। एकमात्र आप ही जगत के परम ईश्वर हैं। जब भगवान श्री कृष्ण ने पृथ्वीमाता की स्तुति सुनी तो उन्होंने उनको समस्त भय प्रद स्थितियों से मुक्त कर दिया। तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण ने भौमासुर के महल में प्रवेश किया। भौमासुर के महल में श्री भगवान ने सोलह हजार एक सौ राजकुमारियों को देखा, जिनका हरण करके उसने उन्हें बंदी बना रखा था। जब राजकुमारियों ने महल में प्रवेश करते हुए श्री भगवान को देखा तो तत्काल भगवान के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गई उनकी अहैतुकी दया की प्रार्थना करने लगीं। वे सब की सब विधाता से प्रार्थना करने लगी कि श्री कृष्ण उनके पति हों।
राजकुमारियां श्री भगवान से बोली, हे प्रभु, हम सब उस पापी भौमासुर के महल में वर्षों से बन्दी है और दूषित भी। हम अब यहाँ से मुक्त होकर भी किस प्रकार जीवित रहेंगी? हमकों प्रेम और सम्मान कि दृष्टि से कौन देखेगा? हमारे लिए मर जाना ही श्रेष्ठ है। हे स्वामी! हमने सुना हैं कि आप श्री भगवान ही इस मृत्युलोक में अवतरित हुए हैं, तो हे जगतपति आप ही हम सब पतित स्त्रियों का उद्धार कीजिये। अपने श्री चरण कमल की दासी बना कर। निष्ठापूर्वक तथा गंभीरता से उन्होंने विशुद्ध भक्तिभाव से अपने-अपने ह्रदय श्री कृष्ण भगवान के चरण कमलों में अर्पित किये। सबके ह्रदय में निवास करने वाले परम ब्रम्ह परमात्मा श्री कृष्ण उनकी निर्दोष इच्छा को समझ सकते थे और वे उन राजकुमारियों को पत्नी रूप में स्वीकार करने लिए सहमत हो गए। इस प्रकार उन्होंने उन सबके लिए उपयुक्त वस्त्र भूषणों का प्रबन्ध किया और प्रत्येक को पालकी पे बिठा द्वारिका भेज दिया।
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द्वारिका जाकर श्री भगवान ने सोलह हजार एक सौ राजकुमारियों के साथ विवाह का आयोजन किया। सोलह हजार एक सौ रूपों में अपना विस्तार करके श्री भगवान ने विभिन्न महलों में एक ही शुभ घड़ी में उन सबसे विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने इस सत्य को स्थापित कर दिया कि अन्य कोई नहीं अपितु केवल श्री कृष्ण ही स्वयं भगवान हैं। उनके लिए कुछ भी असंम्भव नहीं हैं क्योंकि श्री कृष्ण ही परम ईश्वर हैं। वे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा अविनाशी है अत एवं इस लीला में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। भगवान श्री कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के अलग-अलग महल थे और श्री भगवान सभी के साथ उनके अलग-अलग महलों में एक साथ उपस्थित रहते थे। उनकी पत्नियां इतनी सौभाग्यशाली थीं कि उन्हें पति रूप में श्री भगवान प्राप्त हुए। हमें सदैव स्मरण रहना चाहिए कि भगवान श्री कृष्ण एक मानव की भाँति अभिनय कर रहे थे। ब्रम्हा और महादेव जैसे महान देवता भी लीला पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण की लीलाओं को समझने में असमर्थ रहते हैं।
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