अवधेश कुमार

वक्फ संशोधन के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिकाओं की प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है। दोनों सदनों में पारित होने के अगले दिन से ही उच्चतम न्यायालय में याचिकाएं जाने लगी और आप देख सकते हैं कि इस बात की होड़ लगी है कि कौन इसमें किसको पीछे छोड़ रहा है। कांग्रेस के संचार प्रमुख जयराम रमेश ने उच्चतम न्यायालय में जाने की घोषणा कर दी। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पहले ऐलान कर चुका था। संसद में पारित हर कानून की न्यायिक समीक्षा का अधिकार उच्चतम न्यायालय को हैं। तो वहां नए वक्फ कानून की संवैधानिकता पर निर्णय आ जाएगा। किंतु विधेयक पर राष्ट्रपति महोदय के हस्ताक्षर के पहले ही उच्चतम न्यायालय पहुंच जाना किस बात का द्योतक था?

ऐसे कानून, कदम या सुधार, जिनके साथ मुस्लिम समुदाय किसी तरह जुड़ा हो उसके विरुद्ध भारत में ऐसी प्रतियोगिता आम हो चुकी है। एक साथ तीन तलाक, नागरिकता संशोधन कानून और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के विरुद्ध भी हमने यही देखा। इन सभी मामलों की न्यायिक परिणति देश के सामने है। दूसरी ओर बिहार में जदयू, उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल आदि के विरुद्ध दबाव डालने की कोशिश है हो रही है।

मुसलमानों का एक समूह सड़कों पर उतर रहा है, पार्टियों में दबाव डालकर कुछ इस्तीफा करवा रहा है और बयान दे रहा है कि चुनाव में सबक सिखा देंगे। संसद में बहस और मतदान के पूर्व नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू आदि के इफ्तार के बहिष्कार का भी आह्वान किया गया। यह भी दबाव बढ़ाने की रणनीति थी। बावजूद इन पार्टियों ने दोनों सदनों में वक्फ संशोधन विधेयक का समर्थन किया और विपक्ष के आरोपों का आक्रमक खंडन करते हुए तथ्य और तर्क प्रस्तुत किया।

हमारे सामने दो दृश्य दूसरे भी हैं। लोकसभा में बहस के पूर्व सभी पार्टियों ने ह्वीप जारी कर दिया था। किंतु राज्यसभा में गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट घोषणा की कि हमारे सांसद स्वतंत्र हैं, ह्वीप नहीं है, वे जैसे चाहें मतदान करें। इसके बावजूद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संख्या बल से ज्यादा मत विधेयक के समर्थन में आए। इसके कोई निहितार्थ हैं या नहीं? हमने यह भी देखा कि दोनों सदनों में बहस और मतदान के दौरान देश में समर्थन और विरोध दोनों में मुसलमान उतरे।

निष्पक्ष आकलन यही है कि उन दो दिनों में समर्थकों की संख्या भी काफी ज्यादा थी। कई जगह तो विरोध करने वालों से ज्यादा समर्थक सड़क पर थे। अलग-अलग धार्मिक संस्थाओं और संगठनों ने खुलकर विधेयक का समर्थन किया। इनमें वे मुस्लिम मजहबी नेता और संस्थाओं के प्रमुख शामिल थे जो पहले वक्फ में किसी प्रकार के संशोधन का घोर विरोध करते थे। तो इसके भी मायने हैं। तो यही बदले हुए भारत का प्रमाण है। यानी आप न्याय करने की दिशा में संकल्प के साथ आगे बढ़ते हैं तो भ्रम और विरोध कमजोर होते-होते समर्थन बढ़ता है।

जो विरोध दिख रहा है वह अनपेक्षित नहीं है। जब भी आप ऐसे विषयों पर सुधार और परिवर्तन के संवैधानिक कानूनी कदम उठाते हैं तो भारत जैसे देश में इसके विरुद्ध प्रचार और रोकने की कोशिश पहली बार नहीं है। वक्फ कानून, उससे संबंधित बोर्ड और ट्रिब्यूनल या न्यायाधिकरण को मुस्लिम वोट पाने की नीति के तहत जिस तरह सुपर सरकार, सुपर प्रशासन और सुपर न्यायपालिका की भूमिका दे दी गई थी उस ढांचे में लाभान्वित -सम्मानित होने वाले तथा आनंद सुख भोगने वालों के अंदर छटपटाहट स्वाभाविक है।

सच यह है कि वक्फ कानून में संशोधन क्यों नहीं होना चाहिए था या संशोधन में क्या असंवैधानिक, इस्लाम विरोधी, मुस्लिम विरोधी है इसका कोई एक तथात्मक उत्तर विपक्ष के किसी नेता द्वारा संसद में नहीं मिला। जब राज्यसभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि यह कानून उच्चतम न्यायालय में समाप्त हो जाएगा तो सभापति जगदीप धनखड़ ने कहा कि सदन के अंदर ऐसी भाषा संसद का अपमान है। जब एक सदस्य ने कहा कि मुसलमान कानून को नहीं मानेगा तब गृह मंत्री ने कहा कि यह संसद द्वारा बनाया गया कानून है सबको मानना पड़ेगा।

वास्तव में संसद द्वारा विहित प्रक्रिया के तहत पारित कानून पारित भारत के सभी क्षेत्रों और व्यक्तियों पर लागू होता है। कांग्रेस की नेत्री सोनिया गांधी ने लोकसभा में विधेयक पारित होने की प्रक्रिया को बहुमत के द्वारा संविधान का अतिक्रमण और लोकतंत्र का गला घोंटने के समान बता दिया। यह समझ से परे है। लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने रिकॉर्ड रखते हुए बताया कि संप्रग सरकार ने 2013 में सिर्फ चार घंटे की चर्चा के बाद वक्फ संशोधन विधेयक पास कर दिया था जबकि इस बार दोनों सदनों में करीब 27 घंटे से ज्यादा का समय लगा।

3 अप्रैल को 11 बजे से आरंभ राज्यसभा की कार्यवाही अगले दिन सुबह 4 बजे तक चली। संयुक्त संसदीय समिति ने 113 घंटे की चर्चा, 25 वक्फ बोर्डों से संवाद, 15 राज्यों के प्रतिनिधियों से संवाद, विभिन्न समुदायों के राज्य धारकों के कुल 284 प्रतिनिधिमंडलों ने समिति के समक्ष अपने विचार और सुझाव प्रस्तुत किए एवं 92 लाख से ज्यादा सुझाव पर विचार के बाद विधेयक तैयार हुआ। जरा सोचिए, यह प्रक्रिया लोकतंत्र और संविधान का गला घोंटने वाला हो गया हो तथा चार घंटे में पारित कानून लोकतंत्र और संविधान का पालन करने वाला?

पुराने वक्फ कानून और उसके ढांचे पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि उसको दोहराने की आवश्यकता नहीं। वक्फ ने जिस तरह पूरे देश में संपत्तियों का दावा कर उन्हें कब्जे में लिया उसकी बहुत सारी कथाएं रिकॉर्ड में सामने हैं। यह कैसी संवैधानिक व्यवस्था थी जिसमें वक्फ किसी संपत्ति पर दावा कर दे तो वक्फ ट्रिब्यूनल के अलावा आप कहीं नहीं जा सकते। वहां भी संपत्ति आपकी है यह आपको ही साबित करना होगा। ट्रिब्यूनल वर्षों लगा देगा और उसके फैसले को आप सिविल न्यायालय में चुनौती नहीं दे सकते। यानी आपकी संपत्ति गई। इसमें हिंदू और मुसलमान दोनों के साथ सार्वजनिक सरकारी संपत्तियां भी शामिल हैं। गृह मंत्री ने सदन में रिकॉर्ड पर कहा कि कोई गांव या शहर से बाहर नौकरी करने चला गया और उसकी संपत्ति वक्फ कर दी गई। वह जितना भी छटपटाये वापसी के रास्ते नहीं।

वक्फ एक अरबी शब्द है। इस्लाम किसी को दीन और बेसहारा के लिए अपनी संपत्ति के वक्फ करने की इजाजत देता है। इस पर न रोक है न हो सकती है। वक्फ में कोई बदलाव नहीं है। किंतु हम अपनी संपत्ति वक्फ में रजिस्ट्री करा सकते हैं दूसरे की संपत्ति पर कैसे दावा कर सकते हैं? सरकार कैसे संपत्ति वक्फ कर सकती है? आप देखेंगे कि यूपीए सरकार के सत्ता में आने के बाद सच्चर आयोग की नियुक्ति और उसकी रिपोर्ट के बाद पूरे देश में अलग से इस्लामी ढांचा स्थापित करने की प्रक्रिया में केंद्र और राज्य सरकारों ने अनेक संपत्ति वक्फ बोर्डों को दे दिया।

निश्चित रूप से उच्चतम न्यायालय में सारे मामले जाएंगे। हमारी आपकी या किसी मंदिर की जमीनों के कागजात, राजस्व आदि का विषय तो जिला कलेक्टर के अधीन होगा किंतु वक्फ का नहीं हो यह कैसे कानून का पालन माना जाएगा? आज भी यही मांग है। वक्फ इस्लाम का अंग है, लेकिन भारत के संविधान और कानून के तहत सरकारों द्वारा गठित वक्फ बोर्ड और वक्फ ट्रिब्यूनल इस्लाम का विषय नहीं हो सकता। उसे हमारे संविधान और कानून के अंतर्गत ही काम करना होगा। बोर्ड में महिला सदस्य होने की अनिवार्यता के विरोध के पीछे वही सोच है जिसके तहत तीन तलाक मामले पर पर्सनल लॉ बोर्ड में उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत शपथ पत्र में महिलाओं को कमअक्ल वाला लिखा था। कोई संपत्ति जिस उद्देश्य के लिए दान हुआ उसका उपयोग उसके अनुरूप हो रहा है या नहीं तथा वक्फकर्ता ने‌ स्वेच्छा से ऐसा किया है या दबाव डालकर कराया गया इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी प्रशासन की ही है। जिस संस्था में लगभग 41 हजार विवाद हों और उनमें 10 हजार मुसलमानों द्वारा किए गए उसे कायम नहीं रखा जा सकता था।

वास्तव में वक्फ कानून में संशोधन एक लोकतांत्रिक और समानता के सिद्धांत के विरुद्ध, मजहब का अंग न होते हुए भी इस्लाम के नाम पर कुछ शक्तिशाली प्रभुत्वशाली मुस्लिम पुरुषों के एकाधिकार और निरंकुश ढांचे को ध्वस्त कर वक्फ की मूल सोच के अनुरूप संविधान की परिधि में लोकतांत्रिक चरित्र में परिणत करने का प्रगतिशील कदम है। ऐसे ढांचे को संसदीय व्यवस्था के तहत ध्वस्त करना, जिसको सरकारें बदलाव की आवश्यकता महसूस करते हुए भी स्पर्श करने तक से डरती रही हो, निस्संदेश साहसिक ऐतिहासिक और युगांतरकारी कदम है।

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वक्फ की संपत्ति पर इस्लाम की मान्यता के अनुसार गरीब विधवाओं, तलाकशुदा महिलाओं तथा अनाथों का अधिकार है। वक्फ बोर्ड में कहीं आपको एक भी सामान्य मुस्लिम परिवार का सदस्य नहीं मिलेगा वक्फ की संपत्ति का उपयोग करने वाले मस्जिदों और मजारशरीफों का नियंत्रण करते हैं जबकि ऐसे लोगों में से कुछ बाहर भीख मांगते हैं। अब इस दौर का अंत होगा तथा गरीब, वंचित, पसमांदा, महिलाएं सब इस्लाम की धारणा के अनुसार वक्फ के सही उपयोग में भूमिका निभा सकेंगे। वक्फ ने पुराने मामलों के संदर्भ में बदलाव नहीं किया है लेकिन जिन पर विवाद है वे कायम रहेंगे। रिकॉर्ड में और ऑनलाइन आते ही सब कुछ पारदर्शी होगा। तो वक्फ के नाम पर हुए अन्याय के निराकरण का रास्ता प्रशस्त होगा और पीड़ितों को न्याय प्राप्त होने की ठोस संभावना बनेगी। ऐसे मामलों का सच देश के सामने होगा और इस समय इस्लाम के नाम पर हंगामा खड़ा करने वालों के चेहरे भी बेनकाब होंगे।

दोनों सदनों में गृह मंत्री अमित शाह द्वारा रखे गए तथ्य, विचार और तेवर की गंभीरता को देखते हुए किसी को मुगालता नहीं होना चाहिए कि कानून का उल्लंघन करने का कोई साहस करेगा। यद्यपि भूमि या ऐसे मामले राज्यों के विषय हैं तो अलग-अलग राज्यों का तंत्र सरकारों की राजनीतिक नीति के अनुसार काम करेगा और इनमें समस्याएं आएंगी। किंतु वक्फ के दावों के विरुद्ध किसी पीड़ित व्यक्ति को न्यायालय जाने से कोई नहीं रोक सकता। और सिविल न्यायालय में व्यक्ति की सही पहचान और कानून के अनुसार ही फैसला होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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