Kahani: भरत ऋषि ऋषभदेव के पुत्र थे। इनके नाम से ही “आर्यावर्त” का नाम “भारत” पड़ा। इन्होंने शासन करने के बाद अपना राजपाट पुत्रों को सौंपकर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया तथा भगवान की भक्ति में जीवन बिताने लगे। शालिग्राम तीर्थ में तप करने के दौरान इन्होंने नदी में बह रहे एक हिरण के बच्चे की रक्षा की थी। उसी मृग की चिंता करते हुए उनकी मौत हुई थी। इसी कारण इनका अगला जन्म जंबूमार्ग में एक हिरण के रूप में हुआ।
लेकिन, इनकी स्मृतियां बनी रहीं। इस कारण हिरण के जन्म में भी ये भगवान के ध्यान में लीन रहते थे। हिरण की मृत्यु के बाद इनका अगला जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इन्हें अपने पूर्व जन्म की सारी स्मृतियां थीं। अब इन्होंने समझ लिया था कि आसक्ति ही दु:खों का कारण है। इस कारण ये आसक्ति के नाश के लिए प्रयासरत रहते थे। जन्म के साथ ही जड़ की तरह रहने लगे थे। लोग इन्हें मूर्ख समझने लगे थे। लेकिन, ये मोक्ष प्राप्ति के लिए ऐसा कर रहे थे। जड़भरत के पिता उन्हें एक विद्वान पंडित के रूप में देखना चाहते थे। लेकिन, जड़भरत एक श्लोक भी याद नहीं करना चाहते थे। बाद में इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई।
इसके बाद इनके भाई और भाभियां इनसे काफी बुरा बरताव करने लगे। जड़भरत के भाई पुरोहिती कर काफी अर्थोपार्जन कर लेते थे। भाभियां इन्हें निकम्मा बोल कर ताना देने लगीं। इस कारण से ये जड़भरत इधर-उधर मजदूरी कर लेते थे। वहां से जो मिल जाता वही खा लेते और जहां जगह मिल जाती, वहां सो जाया करते थे। वे सुख-दु:ख, मान-सम्मान को एक जैसा समझने लगे थे। उनके परिवार को लगा कि जड़भरत के ऐसा करने के कारण समाज में उनकी अप्रतिष्ठा हो रही है तो उन्होंने उसे खेती के काम में लगा दिया। वे रात-दिन खेतों की मेड़ पर बैठ कर खेत की रखवाली करने लगे। इसी बीच एक डाकू को संतान नहीं हो रही थी। एक तांत्रिक ने बताया कि मां काली के समक्ष एक व्यक्ति की बलि देने से उसे संतान हो जाएगी। ऐन समय पर जिस आदमी की बलि देनी थी, वह भाग गया। तब डाकू जड़भरत को ही अपने ठिकाने पर ले गए। वहां डाकू ने जैसे ही जड़भरत की बलि देने के लिए तलवार उठाई, वैसे ही मॉ काली प्रकट हो गईं। उन्होंने डाकुओं के सरदार के हाथ से तलवार छीनी और उसका ही वध कर दिया। जड़भरत फिर आकर खेतों की मेड़ पर बैठ गए और खेतों की रखवाली करने लगे।
इसके कुछ दिनों बाद राजा रहूगण पालकी पर बैठकर ज्ञान लेने कपिल मुनि के पास जा रहे थे। रास्ते में पालकी के एक कहार की मौत हो गई। रहूगण के सेवक पास के खेत से जड़भरत को ही उठा कर ले आए। जड़भरत बिना कोई आपत्ति किए इस काम में जुट गए। लेकिन, वे काफी संभल-संभल कर चल रहे थे। उनके पैरों के नीचे कुचल कर किसी जीव की मृत्यु न हो जाए, इस कारण वे संभल कर चल रहे थे। इससे पालकी डगमगा रही थी। राजा रहूगण ने कहारों से कहा कि इस तरह क्यों चल रहे हो, सावधानी के साथ क्यों नहीं चलते। कहारों ने कहा कि हम तो संभल कर चलते हैं, लेकिन यह नया कहार रह-रह कर डगमगा रहा है। राजा रहूगण ने जड़भरत से कहा कि देखने में तो तुम हृष्ट-पुष्ट हो, लेकिन पालकी लेकर ठीक से नहीं चल सकते। यदि सावधानी से नहीं चले तो मैं तुम्हें दंड दूंगा।
इस पर जड़भरत ने कहा कि आप शरीर को तो दंड दे सकते हैं, लेकिन मुझे दंड नहीं दे सकते। मैं शरीर नहीं, आत्मा हूं। इस कारण मैं दंड और पुरस्कार दोनों से परे हूं। दंड देने की बात तो दूर है, आप तो मुझे स्पर्श भी नहीं कर सकते। यह सुनते ही राजा रहूगण ने पालकी रखवा दी और उतर कर जड़भरत के पैरों में गिर गए। उन्होंने जड़भरत से उनका परिचय पूछा। तब जड़भरत ने कहा कि ‘राजन! मैं न तो कपिल मुनि हूं और न कोई ॠषि हूं। मैं पूर्वजन्म में एक राजा था। मेरा नाम भरत था। मैंने भगवान श्रीहरि के प्रेम और भक्ति में घर-द्वार छोड़ दिया था। मैं हरिहर क्षेत्र में जाकर रहने लगा था। किंतु एक मृग शिशु के मोह में फंसकर मैं भगवान को भी भूल गया। मृगशिशु का ध्यान करते हुए जब शरीर त्याग किया, तो मृग का शरीर प्राप्त हुआ।
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मृग का शरीर प्राप्त होने पर भी भगवान की अनुकंपा से मेरा पूर्व-जन्म का ज्ञान बना रहा। मैं यह सोचकर बड़ा दुखी हुआ कि मैंने कितनी अज्ञानता की थी! एक मृगी के बच्चे के मोह में फंसकर मैंने भगवान श्रीहरि को भुला दिया था। राजन, जब मैंने मृग शरीर का त्याग किया, तो मुझे यह ब्राह्मण शरीर प्राप्त हुआ। ब्राह्मण का शरीर प्राप्त होने पर भी मेरा पूर्व-जन्म का ज्ञान बना रहा। मैं यह सोचकर कि मेरा यह जन्म व्यर्थ न चला जाए, अपने को छिपाए हूं। मैं दिन-रात परमात्मारूपी शिव बाबा कि याद में रहता हूं, मुझे शरीर का ध्यान बिलकुल नहीं रहता। राजन, इस जगत में न कोई राजा है। न प्रजा, न कोई अमीर है, न कोई गरीब, न कोई कमजोर है, न कोई बलवान, न कोई मनुष्य है, न कोई पशु। सब आत्मा ही आत्मा हैं। इस जगत में सब एक शरीर रूपी पोशाक पहन कर आत्मा अभीनेता पार्ट निभाते है। ‘राजन, यही श्रेष्ठ ज्ञान है, और यही श्रेष्ठ धर्म है।
उन्होंने जड़भरत से निवेदन किया, ‘महात्मन! मुझे अपने चरणों में रहने दीजिए, अपना शिष्य बना लीजिए। जड़भरत ने उत्तर दिया, ‘राजन जो मैं हूं, वही आप हैं। न कोई गुरु है, न कोई शिष्य। सब आत्मा है। रहूगण जड़भरत से अमृत ज्ञान पाकर तृप्त हो गए।
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