
Kahani: प्राचीन काल में किसी जंगल में गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था। जो जंगली जानवरों का शिकार करता और उससे अपने परिवार का भरण-पोषण करता। एक बार शिवरात्रि के दिन जब वह शिकार के लिए निकला, पर संयोगवश पूरे दिन खोजने के बाद भी उसे कोई शिकार न मिला। उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पड़ेगा इस बात से वह चिंतित हो गया।
सूर्यास्त होने पर वह एक जलाशय के समीप गया। वहाँ एक घाट के किनारे एक पेड़ पर थोड़ा सा जल पीने के लिए लेकर चढ़ गया। उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई न कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए यहाँ जरूर आयेगा। वह पेड़ बेल का था और उसी पेड़ के नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था। रात का पहला प्रहर बीतने से पहले एक हिरणी वहाँ पर पानी पीने के लिए आई। उसे देखते ही शिकारी ने अपने धनुष पर बाण साधा।
ऐसा करने में, उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूँदे नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गयी। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा। भयभीत हो कर, शिकारी से, काँपते हुए स्वर में बोली–मुझे मत मारो।’ शिकारी ने कहा–‘‘वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसे नहीं छोड़ सकता।’
हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। शिकारी को उसकी बात का विश्वास नहीं हो रहा था। उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है। समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। क्रूर होने के बावजूद भी शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने जल्दी लौटना कहकर उस हिरनी को जाने दिया।
थोड़ी ही देर बाद एक और हिरनी वहाँ पानी पीने आई, शिकारी सावधान हो गया। तीर साधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से फिर पहले की ही तरह थोड़ा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और अनायास ही शिकारी की दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत होकर शिकारी से जीवनदान की याचना की लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर, हिरनी ने उसे लौट आने का वचन, यह कहते हुए दिया कि उसे ज्ञात है कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाया करता है। उस शिकारी ने पहले की तरह इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया।
अब तो वह इसी चिन्ता से व्याकुल हो रहा था कि उनमें से शायद ही कोई हिरनी लौट के आये और अब उसके परिवार का क्या होगा। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा, उसे देखकर शिकारी बड़ा प्रसन्न हुआ। अब फिर धनुष पर बाण चढाने से उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही सम्पन्न हो गयी लेकिन पत्तों के गिरने की आवाज से वह हिरन सावधान हो गया। उसने शिकारी को देखा और पूछा–तुम क्या करना चाहते हो?
शिकारी बोला–‘अपने कुटुम्ब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूँगा।’ वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा–‘मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आएगा। परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जायेगा पर कृपया कर अभी मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंपकर और उन सबको धीरज बँधा कर यहाँ लौट आऊँ।’ शिकारी का हृदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब तक शुद्ध हो गया था। इसलिए वह विनय पूर्वक बोला–‘जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाओगे, तो मेरे परिजनों का क्या होगा?’
अब हिरन ने यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का भरोसा दिलवाया कि यदि वह लौटकर न आये, तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है। जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि ‘शीघ्र लौट आना।’ रात्रि का अन्तिम प्रहर शुरू होते ही उस शिकारी के हर्ष की सीमा न थी क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एकसाथ आते देख लिया था। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा सम्पन्न हो गयी।
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अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये। इसलिए वह सोचने लगा–‘ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन होकर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं, लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।’ अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा मृगों से कहा की वे सब धन्य है तथा उन्हें वापस जाने दिया। उसके ऐसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया तथा उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर ‘गुह्य’ नाम प्रदान किया।
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