
Kahani: एक नगर सेठ थे, अपनी पदवी के अनुरूप वह अथाह दौलत के स्वामी थे। घर, बंगला, नौकर-चाकर थे। एक चतुर मुनीम भी था जो सारा कारोबार संभालता था। किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई। नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या। अपने पेशे की ज़रूरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया। फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया।
सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे। नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी। खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है। अब नगर-सेठ जब-तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे। शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं। नगर भर में ख़बर फैल गई। काम-धंधे पर असर होने लगा मुनीम की नज़रें इस पर टेढ़ी होने लगीं।
एक दिन सेठ को बुखार आ गया तबीयत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई। कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके। इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया। सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए। निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ। मुनीम तो मुनीम था। ख़ानदानी मुनीम उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी। उसने सेठ को समझाया कि वह भूल कर रहे हैं।
बताने की कोशिश की, कि वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती। पैसों से करती है। मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं। लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया। उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ। मुनीम क्या करता एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े, लेकिन रास्ते भर वह इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचता रहा।
नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससे तुम सबसे अधिक प्रेम करती हो।”नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए। मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था। निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है। नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई। सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी। उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा। उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए।
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तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था, लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया। ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए। नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी उसने कहा कि उससे भूल हो गई है, लेकिन मुनीम चल पड़े। बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे। मुनीम पहुंचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में, न तेरह में। यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो। सेठ की आँखें खुल गई थीं इसके बाद वह कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े।
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