Kahani: एक गांव में एक नास्तिक रहता था, जिसका नाम शिवराम था। न जाने क्यों, वह भगवान के नाममात्र से ही भड़क उठता था। यहाँ तक कि किसी आस्तिक से बात करना भी वह पाप समझता था। एक बार उसके गाँव में एक बड़ महात्मा प्रवचन देने के लिये आए। पूरा गाँव उनका प्रवचन सुनने के लिए उमड़ पड़ा। कई दिनों तक महात्मा जी का प्रवचन चलता रहा। मगर उसने उधर जाना तक उचित न समझा। एक दिन वह संध्या के समय अपने खेत से लौट रहा था, सभी प्रवचन दे रहे महात्मा का स्वर उसके कानों से टकराया, “अगर तुम जीवन में सफल होना चाहते हो तो मन में कुछ न कुछ दृढ़ संकल्प कर लो और पूर्ण निष्ठा से उसे पूरा करने में लगे रहो। एक न एक दिन तुम्हें सफलता जरूर मिलेगा।
न चाहते हुए भी आखिर यह बात उसके कानों टकरा ही गयी। उसने इस बात को भूल जाना चाहा, लेकिन जब रात में सोया तो रह-रहकर महात्मा के कहे शब्द उसके दिमाग में गूँजने लगे। लाख कोशिश करके भी वह उनसे अपना पीछा नहीं छुड़ा पाया। आखिर थक-हारकर उसने इस कथन की सत्यता को परखने का निश्चय किया। लेकिन वह क्या दृढ़ संकल्प करें? उसने ऐसी बात सोचनी चाही, जिससे कभी भी कोई प्रतिफल न मिलने वाला हो। उसका मंतव्य सिर्फ इतना था कि किसी भी तरह महात्मा का कथन असत्य सिद्ध हो जाए। काफी सोच विचार में उलझे रहने के बाद उसका ध्यान अपने घर के सामने रह रहे कुम्हार पर गया। उसने संकल्प किया वह प्रतिदिन कुम्हार का मुँह देखे बिना भोजन नहीं करेगा।
अपनी इस सोच पर वह मन ही मन खूब हँसा, क्योंकि वह जानता था कि इसका किसी तरह कोई भी सुफल नहीं मिल सकता है। अगले ही दिन से उसने अपने संकल्प पर अमल करना शुरू कर दिया। अब वह अंधेर में ही उठकर अपने घर के बाहर चबूतरे पर बैठ जाता, जब कुम्हार उठकर बाहर आता जाता तो वह उसका मुँह देख लेता, फिर अपने काम में लग जाता। कभी-कभी ऐसे भी अवसर आते, जब कुम्हार बाहर चला जाता तो उसके एक दो दिन तक उपवास करना पड़ता। लेकिन न तो वह इससे विचलित हुआ और न ही उसने अपने संकल्प की भनक कुम्हार अथवा अपने किसी परिवार जन को लगने दी। धीरे-धीरे छह महीने बीत गए। किंतु उसे कुछ भी लाभ न हुआ। फिर भी अपने संकल्प पर अटल एवं अडिग रहा। उस पर तो नास्तिकता का भूत सवार था। कुछ भी करके वह महात्मा की बात झूठी साबित करना चाहता था। एक दिन उसकी नींद देर से खुली। तब तक कुम्हार मिट्टी लेने के लिए गाँव के बाहर खदान में चला गया था। जब उसे इसका पता चला तो वह भी घूमते-घूमते उधर जा निकला, ताकि कुम्हार का मुँह देख ले।
उसने थोड़ी दूर खड़े होकर कुम्हार को देखा। वह मिट्टी खोदने में तल्लीन था। अतः वह चुपचाप वापस चल पड़ा उधर मिट्टी खोदते-खोदते कुम्हार के सामने सोने की चार ईंटें निकल आयीं। उसने गरदन उठाकर चारों तरफ देखा कि कोई उसे देख तो नहीं रहा है। तभी उसकी नजर कुछ दूर तेज कदमों से जाते उस पर पड़ी। उसने अपनी घबराहट पर नियंत्रण किया और उसे पुकारा अरे भाई शिवराम किधर से आ रहे हो और कहाँ जा रहे हो? और कहा जा रहे हो? वह किधर से आया था, पूछकर कुम्हार तसल्ली कर लेना चाहता था। उसने रुककर जवाब दिया, “बस इधर ही आया था। जो देखना था सो देख लिया। अब वापस घर जा रहा हूँ।” उसके कहने का तो मतलब था कि उसने कुम्हार का मुँह देख लिया था। लेकिन कुम्हार घबरा गया। उसे पक्का विश्वास था कि उसने सोना देख लिया है। कहीं उसने रियासत के राजा से शिकायत कर दी तो हाथ आयी लक्ष्मी निकल जाएगी। उसने तुरंत कुछ निर्णय किया और उससे बोला “अरे भाई शिवराम देख लिया है तो तुम भी आधा ले जाओ। लेकिन राजा से शिकायत न करना।”
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उसने सोचा कि कुम्हार मजाक कर रहा है। वह मना करते हुए चल पड़ा। अब तो कुम्हार एकदम घबरा गया। उसने दौड़कर उसे पकड़ लिया और हाथ जोड़ते हुए बोला, भाई तुम्हें आधा ले जाने में क्या हर्ज है?” अब तो वह थोड़ा चकराया। कुम्हार उसे अपने साथ खदान में ले गया। वहाँ सोने की ईंटें पड़ी देखकर वह सारा माजरा समझ गया उसने चुपचाप चार में दो ईंटें उठा ली। ईंटें उठाते समय महात्मा के वाक्य की महिमा समझ में आ रही थी। वहां से लौट कर उसने वह सारा सोना गाँव वालों के हित में लगा दिया। इसी के साथ उसने शेष जीवन कठोर तप एवं भगवद्भक्ति में लगान का निश्चय किया। संकल्प के इसी प्रभाव के कारण अब उसे लोग नास्तिक नहीं परम आस्तिक, महान तपस्वी महात्मा शिवराम के नाम से जानने लगे थे।
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