Kahani: सेठ ने अभी दुकान खोली ही थी कि एक औरत आई और बोली, सेठ जी, ये लीजिए आपके दस रुपये। सेठ ने उस गरीब-सी औरत को प्रश्नवाचक नज़रों से देखा, मानो पूछ रहा हो, मैंने तुम्हें दस रुपये कब दिए? औरत बोली, कल शाम को मैं सामान लेने आई थी। तब मैंने आपको सौ रुपये दिए थे। सत्तर रुपये का सामान खरीदा था, आपने तीस रुपये की जगह चालीस रुपये वापस दे दिए।
सेठ ने दस रुपये को माथे से लगाया और गल्ले में डालते हुए बोला, एक बात बताइए बहन जी, आप सामान खरीदते समय मोल-भाव कर रही थीं। पाँच रुपये कम करवाने के लिए आपने कितनी बहस की थी, और अब ये दस रुपये लौटाने चली आईं? औरत बोली, पैसे कम करवाना मेरा हक है, मगर एक बार मोल-भाव होने के बाद उस चीज़ के कम पैसे देना पाप है।
सेठ बोला, लेकिन आपने कम पैसे कहाँ दिए? आपने पूरे पैसे दिए थे। ये दस रुपये तो मेरी गलती से आपके पास चला गया था। रख लेतीं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। औरत बोली, आपको कोई फर्क नहीं पड़ता, मगर मेरे मन पर हमेशा यह बोझ रहता कि मैंने जानते-बूझते आपके पैसे खाए हैं। इसलिए मैं रात को ही आपके पैसे वापस देने आई थी, मगर उस समय आपकी दुकान बंद थी। सेठ ने महिला को आश्चर्य से देखते हुए पूछा, आप कहाँ रहती हो? वह बोली, सेक्टर आठ में रहती हूँ। सेठ का मुँह खुला रह गया। बोला, आप सात किलोमीटर दूर से ये दस रुपये देने दूसरी बार आई हो?
औरत सहज भाव से बोली, हाँ, दूसरी बार आई हूँ। मन का सुकून चाहिए तो ऐसा करना पड़ता है। मेरे पति इस दुनिया में नहीं हैं, मगर उन्होंने मुझे एक ही बात सिखाई है- दूसरे के हक का एक पैसा भी मत खाना। क्योंकि इंसान चुप रह सकता है, मगर ऊपर वाला कभी भी हिसाब माँग सकता है। और उस हिसाब की सजा मेरे बच्चों को भी मिल सकती है। इतना कहकर वह औरत चली गई।
सेठ ने तुरंत गल्ले से तीन सौ रुपये निकाले और स्कूटी पर बैठते हुए अपने नौकर से बोला, तुम दुकान का ख्याल रखना, मैं अभी आता हूँ। सेठ बाजार में ही एक दुकान पर पहुँचा। उस दुकानदार को तीन सौ रुपये देते हुए बोला, ये लीजिए प्रकाश जी, आपके तीन सौ रुपये। कल जब आप सामान लेने आए थे, तब हिसाब में ज्यादा जुड़ गए थे। प्रकाश हँसते हुए बोला, पैसे हिसाब में ज्यादा जुड़ गए थे तो आप तब दे देते, जब मैं दुबारा दुकान पर आता। इतनी सुबह-सुबह आप तीन सौ रुपये देने चले आए?
सेठ बोला, जब आप दुबारा आते, तब तक मैं मर जाता! आपको और मुझे इन तीन सौ रुपयों का पता नहीं था न? इसलिए देना जरूरी था। पता नहीं, ऊपर वाला कब हिसाब माँगने बैठ जाए? और उस हिसाब की सजा मेरे बच्चों को भी मिल सकती है। सेठ तो चला गया, मगर प्रकाश के दिल में खलबली मच गई। दस साल पहले उसने अपने एक दोस्त से तीन लाख रुपये उधार लिए थे। मगर पैसे लौटाने के दूसरे ही दिन दोस्त की मृत्यु हो गई थी। दोस्त के घरवालों को पैसों के बारे में पता नहीं था, इसलिए किसी ने उससे पैसे वापस नहीं माँगे थे। प्रकाश के दिल में लालच आ गया था, इसलिए वह खुद पहल करके पैसे लौटाने नहीं गया। आज दोस्त का परिवार गरीबी में जी रहा था। दोस्त की पत्नी लोगों के घरों में झाडू-पोंछा करके बच्चों को पाल रही थी, फिर भी प्रकाश उनके पैसे हज़म किए बैठा था।
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सेठ का वाक्य पता नहीं, कब ऊपर वाला हिसाब माँगने बैठ जाए? और उस हिसाब की सजा मेरे बच्चों को भी मिल सकती है प्रकाश को डरा रहा था। प्रकाश दो-तीन दिन तक तनाव में रहा। आखिरकार उसका जमीर जाग गया। उसने बैंक से तेरह लाख रुपये निकाले और पैसे लेकर दोस्त के घर पहुँच गया। दोस्त की पत्नी घर पर ही थी। वह अपने बच्चों के पास बैठी बातें कर रही थी कि प्रकाश जाकर उसके पैरों पर गिर गया। एक-एक रुपये के लिए संघर्ष कर रही उस विधवा औरत के लिए तेरह लाख रुपये बहुत बड़ी रकम थी। पैसे देखकर उसकी आँखों में आँसू आ गए। वह प्रकाश को दुआएँ देने लगी, जिसने ईमानदारी दिखाते हुए पैसे लौटा दिए। यह वही औरत थी, जो सेठ को दस रुपये लौटाने दो बार गई थी।
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