टेलीविजन न्यूज चैनलों पर हो रही बहसें डराने लगी हैं। चीख-चिल्लाहटों और शोर से भरा स्क्रीन अजीब से भाव जगा रहा है। संवाद और शास्त्रार्थ की संस्कृति में रचा-बसा समाज इस ‘वितंडावाद’ से हैरत में है। बहसें हैं कि जारी हैं। उनका अंत नहीं है। वे संवाद और बातचीत के बजाए ‘कलहप्रिय’ ज्यादा हैं। उन्हें संवाद के बजाए शोर पसंद है। उन्हें सुझाव के बजाए तल्खियां पसंद हैं। वे इन बहसों से कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहते। वे चाहते हैं अंतहीन शोर और विवाद के नित नए विषय। इससे टीवी को क्या हासिल है यह तो पता नहीं किंतु समाज को इससे कोई उम्मीद नहीं।
टीवी के साथी बातचीत में कहते हैं टेलीविजन ड्रामे का माध्यम है, यहां स्क्रीन पर ड्रामा रचना होता है। मैं बिल्कुल इस बात से असहमत नहीं हूं। ड्रामे रचे जाएं पर वे सुखांत लेकर आएं। अगर ये ड्रामे दुखांत का कारण बनें, समाज में सद्भाव को तोड़ने का कारण बनें। दुखों का कारण बनें, उकसावे का कारण बनें तो इससे क्या हासिल है। मुझे लगता है कि टेलीविजन न्यूज मीडिया को अपनी भूमिका पर विचार करने का समय आ गया है। जरूरी है कि वे अपने द्वारा रचे जा रहे कंटेट और खासकर बहसों के स्वर पर एक बार जरूर सोचें।
एक समय में प्रिंट मीडिया ही सूचनाओं का वाहक था, वही विचारों की जगह भी था। 1991 के बाद टीवी घर-घर पहुंचा और उदारीकरण के बाद निजी चैनलों की बाढ़ आ गयी। इसमें तमाम न्यूज चैनल भी आए। जल्दी सूचना देने की होड़ और टीआरपी की जंग ने माहौल को गंदला दिया। इसके बाद शुरू हुई टीवी बहसों ने तो हद ही कर दी। टीवी पर भाषा की भ्रष्टता, विवादों को बढ़ाने और अंतहीन बहसों की एक ऐसी दुनिया बनी, जिसने टीवी स्क्रीन को चीख-चिल्लाहटों और शोरगुल से भर दिया। इसने हमारे एंकर्स, पत्रकारों और विशेषज्ञों को भी जगहंसाई का पात्र बना दिया। उनकी अनावश्यक पक्षधरता भी लोगों से सामने उजागर हुयी। ऐसे में भरोसा टूटना ही था। इसमें पाठक और दर्शक भी बंट गए।
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हालात यह हैं कि दलों के हिसाब से विशेषज्ञ हैं जो दलों के चैनल भी हैं। पक्षधरता का ऐसा नग्न तांडव कभी देखा नहीं गया। आज हालात यह हैं कि टीवी म्यूट (शांत) रखकर भी अनेक विशेषज्ञों के बारे में यह बताया जा सकता है कि वे क्या बोल रहे होंगे। इस समय का संकट यह है कि पत्रकार या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। दर्शक अवाक रह जाता है कि आखिर क्या हो रहा है।
कहने में संकोच नहीं है कि अनेक पत्रकार, संपादक और विषय विशेषज्ञ दल विशेष के प्रवक्ताओं को मात देते हुए दिखते हैं। ऐसे में इस पूरी बौद्धिक जमात को वही आदर मिलेगा जो आप किसी दल के प्रवक्ता को देते हैं। मीडिया की विश्वसनीयता को नष्ट करने में टीवी मीडिया के इस ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित जरूर किया जाएगा। यह साधारण नहीं है कि टीवी के नामी एंकर भी अब टीवी न देखने की सलाहें दे रहे हैं। ऐसे में यह टीवी मीडिया कहां ले जाएगा कहना कठिन है।
मीडिया के साथ गहरी जिम्मेदारी का भाव संयुक्त ही है। उसे अंततः प्रामाणिक, जवाबदेह और जनपक्ष में होना है। वह समाज को बांटने का काम नहीं कर सकता। उसे लोगों को साथ लेकर चलना है और ऐसा वातावरण बनाना है, जिससे मुल्क की तस्वीर बदरंग न नजर आए। आजादी की लड़ाई लड़ते समय भी मीडिया का मूल स्वर यही रहा। सामने अंग्रेजी हूकूमत थी किंतु हमारे संपादकों ने अपनी शाब्दिक मर्यादा नहीं खोई। अपने समाज को जगाते हुए। उन्हें राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत करते हुए भी हमारे अखबार अंग्रेजी नीतियों का विरोध तो कर रहे थे, किंतु अंग्रेजों के शाब्दिक हिंसा भी नहीं की।
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इस पूरे समय पर लोकमान्य तिलक, माधवराव सप्रे, महात्मा गांधी, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी का जैसा असर था, उसके नाते ही यह संभव हुआ। टीवी मीडिया ने अपनी हदें और सरहदें कई बार तय कीं। उनके प्रोफेशनल संगठनों में आचार संहिता का विचार हुआ किंतु स्क्रीन पर कुछ और होता रहा। एजेंडा पत्रकारिता ने इस संकट को और गहरा किया। अपने-अपने विचार से आबद्ध मीडिया मित्रों ने जो किया वह सबके सामने है। ‘पोलिटिकल लाईन’ के बजाए अपनी ‘पार्टी लाइन’ की रक्षा में लगे बहसवीरों ने ऐसा वातावरण बना दिया है,जिसके अर्थ कम हैं और अनर्थ ज्यादा।
एक लड़ता-झगड़ता भारत जैसा स्क्रीन पर दिखता है। क्या वह सच है? हम भारत के लोग इसे मानने को तैयार नहीं है। जिस प्रेम, सद्भाव और मैत्री के साथ समाज रहता और संवाद करता है, उसकी छवियां हमारे टीवी मीडिया से नदारद हैं। सनसनी और कलंक कथाओं के अलावा भी इस देश में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है। मीडिया की नजर वहां जाती है, पर उस मात्रा में नहीं जिससे यह सकारात्मक भाव का सृजन कर सके। मीडिया का कर्म बेहद जिम्मेदारी का कर्म है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति डा.एपीजे अबुल कलाम ने एक बार मीडिया विद्यार्थियों शपथ दिलाते हुए कहा था-“मैं मीडिया के माध्यम से अपने देश के बारे में अच्छी खबरों को बढ़ावा दूंगा, चाहे वो कहीं से भी संबंधित हों।”
शायद मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है। सिर्फ दिखने, बिकने और सनसनी फैलाने के अलावा सामान्य नागरिकों की तरह मीडिया का भी कोई राष्ट्रधर्म है पर उसे यह कौन बताएगा?
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सच के साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था। हर समय अपने नायक खोज ही लेता है। इस कठिन समय में भी टीवी मीडिया पर कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं। समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है। हर समय अपने साथ कुछ चुनौतियां लेकर सामने आता है, उन सवालों से जूझकर ही नायक अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं। नए समय ने अनेक संकट खड़े किए हैं तो अपार अवसर भी दिए भी हैं। भरोसे का बचाना जरूरी है, क्योंकि यही हमारी ताकत है।
भरोसे का नाम ही पत्रकारिता है, सभी तंत्रों से निराश लोग अगर आज भी मीडिया की तरफ आस से देख रहे हैं तो तय मानिए मीडिया और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक ही हैं। गहरी लोकतांत्रिकता में रचा-बसा समाज ही एक अच्छे मीडिया का भी पात्र होता है। हमें अपने मनों में झांकना होगा कि क्या हमारी सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियां एक बेहतर मीडिया के लिए, एक अच्छे मनुष्य के लिए उपयुक्त हैं? अगर नहीं तो मनुष्य की मुक्ति के अभी कुछ और जतन करने होंगे। लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदलने के लिए और काम करना होगा।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)