प्रकृति का प्रत्येक अंश और अंग परस्परावलम्बन में है। सब एक दूसरे पर आश्रित हैं। न जल स्वतंत्र है और न ही हवा। वनस्पतियां औषधियां भी स्वतंत्र नहीं हैं। लाखों जीव हैं, वह भी प्रकृति की शक्तियों पर निर्भर हैं। पिछले कुछ समय से प्रकृति के सभी घटकों पर आधुनिक सभ्यता का आक्रमण है। पृथ्वी का ताप बढ़ा है। संभवतः पहली बार भारत के बड़े क्षेत्र में तापमान लगभग 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। अनेक जीव पशु पक्षी इस ताप को सह नहीं पाए। अनेक मनुष्यों की भी इस ताप के कारण मृत्यु हुई। भूमण्डलीय ताप में लगातार वृद्धि का कारण हमारी जीवनशैली है। इसका केन्द्र आधुनिक औद्योगिक सभ्यता है। इस विषय पर कई अंतरराष्ट्रीय बैठकें भी हो चुकी हैं। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। यही स्थिति जल प्रदूषण की है। नदियां सूख रही हैं। ऋतु चक्र गड़बड़ाया है।
प्राचीन भारत में सभी प्राकृतिक शक्तियों वनस्पतियों और भिन्न-भिन्न जीवों के प्रति आत्मीयता का भाव रहा है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में यह आत्मीयता सुंदर कविता के रूप में प्रकट हुई है। इस सूक्त के रचनाकार अथर्वा हैं। उन्होंने पृथ्वी को माता कहा है। उत्सवों और मांगलिक कार्यों में छाया आदि बनाने के क्रम में जमीन में बांस गाड़े जाते थे। जमीन को खोदना पड़ता था। ऋषि प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे पृथ्वी माता इसके लिए हमें क्षमा करें।‘‘
अथर्वा कहते हैं, ‘‘इस पृथ्वी पर तमाम उत्सव होते हैं। लोग मिलते हैं। परस्पर प्रसन्न होते हैं। ऐसी हमारी पृथ्वी माता हम सबको संरक्षण दें। ऋग्वेद और अथर्ववेद में वनस्पतियों को भी देवता माना गया है। महाभारत के प्रसंग में श्रीकृष्ण ने पृथ्वी की उपासना की। पृथ्वी प्रकट हो गईं। श्री कृष्ण ने पूछा कि, ‘‘हे माता आप किस उपासना से प्रसन्न होती हैं? पृथ्वी ने उत्तर दिया कि, ‘‘दोपहर और सांय कीट-पतिंग, चूहे बिल्लियों आदि के लिए अन्न के कुछ दाने बिखेरने से हम प्रसन्न होते हैं। मार्क्सवादी विद्वान रामशरण शर्मा ने ‘प्रारंभिक भारत का परिचय‘ (पृष्ठ 44) में लिखा है, ‘‘प्राचीन भारत में नदियां ईश्वर तुल्य मानी जाती थीं। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को देवी के रूप में चित्रित किया गया है। वैदिकोत्तर काल में गंगा को मातृ देवी कहा गया है। ऐसी परंपराएं आज तक बरकरार हैं, पृथ्वी और जल दोनों से वनस्पतियों और पशुओं का पोषण होता था। इसलिए इन्हें माता का दर्जा दिया गया। अनेक वृक्ष नीम, पीपल, बरगद, शमी और तुलसी भी पवित्र माने जाते हैं।‘‘
ऋग्वेद और अथर्ववेद में गोहत्या को निषेध बताया गया है। शर्मा जी ने लिखा है कि, ‘‘गौतम बुद्ध पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सुत्त निपात में गायों की सुरक्षा की आवश्यकता पर बल दिया है।‘‘ शर्मा जी ने ऋग्वेद के संदर्भ की उपेक्षा की है। बुद्ध से बहुत पहले ऋग्वेद में गायों की सुरक्षा के साथ उनकी उपासना पर भी जोर दिया गया है। संपूर्ण वैदिक साहित्य पर्यावरण सजगता से भरा पूरा है। पर्यावरण की चिंता संप्रति विश्व कर्तव्य है। भारत में पर्यावरण चेतना का उद्भव कम से कम 3000 से 4000 वर्ष पुराना है। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को प्रकृति का यज्ञ चक्र समझाया और कहा, ‘‘अन्न से प्राणी हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ श्रेष्ठ कर्म से उत्पन्न होता है। (गीता 3.14) मनुष्य वनस्पतियों और जीवन के प्रति आत्मीय बना रहे तो वर्षा समय पर होगी। सभी प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा भी होगी।
रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ में लिखा है, ‘‘जब आर्य इस संस्कृति का निर्माण करने लगे तब उनके सामने अनेक जातियों को एक संस्कृति में पचा कर समन्वित करने का सवाल था। ये जातियां आर्य आगमन के पहले से ही इस देश में बस रहीं थीं। उन्होंने आरंभ से हिन्दुओं का लचीला रुख पसंद किया।‘‘ दिनकर जी के कथन में आर्य बाहर से आई हुई जाति है। प्रश्न है कि बाहर से आए आर्य यहाँ पर नदी संस्कृति का निर्माण क्यों करेंगे? दिनकर जी आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते थे। यह गलत है। यहाँ पहले से ही वैदिक संस्कृति फल फूल रही थी। दिनकर जी ने अपनी बात के समर्थन में पंडित जवाहर लाल नेहरू को उद्धृत किया है।
नेहरू ने लिखा है, ‘‘ईरानी और यूनानी लोग, पार्थियन और बैक्ट्रियन लोग, सीथियन और हूण लोग, मुसलमानों से पहले आने वाले तुर्क और ईसा की आरंभिक सदियों में आने वाले ईसाई, यहूदी और पारसी, ये सब के सब एक के बाद एक भारत में आए और उनके आने से समाज ने एक हल्के कम्पन का भी अनुभव किया। मगर अंत में आकर वे सब के सब भारतीय संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो गए।‘‘ नेहरू के कथन में भारतीय संस्कृति का महासमुद्र ध्यान देने योग्य है। इसी में बाहर से आए लोग और विचार धुल गए।
सांस्कृतिक दृष्टि से भारत प्राचीन काल से ही सर्वसमावेशी रहा है। इसका कारण प्राचीन वैदिक दर्शन रहा है। सीईएम जोड ने सही लिखा है कि, मानव जाति को भारत वासियों ने जो सबसे बड़ी चीज वरदान के रूप में दी है वह यह है कि भारतवासी हमेशा से ही अनेक जातियों के लोगों और अनेक प्रकार के विचारों के बीच समन्वय करने को तैयार रहे हैं और सभी प्रकार की विविधताओं के बीच एकता कायम करने की उनकी क्षमता लाजवाब रही है। सबके प्रति आत्मभाव भारतवासियों का स्वभाव रहा है। वैदिककाल में कीट पतिंग से लेकर मनुष्यों तक एक ही आत्मतत्व मान्य रहा है।
भारतीय ज्ञान परंपरा से प्रभावित विद्वान मैक्समूलर ने लिखा है कि, ‘‘अगर मैं आपसे यह पूछूं कि केवल यूनानी, रोमन और यहूदी भावनाओं और विचारों पर पलने वाले हम यूरोपीय लोगों के आतंरिक जीवन को अधिक समृद्ध, अधिक पूर्ण और अधिक विश्वजनीन, संक्षेप में, अधिक मानवीय बनाने का नुस्खा हमें किस जाति के साहित्य में मिलेगा, तो बिना किसी हिचकिचाहट के मेरी ऊँगली हिन्दुस्तान की ओर उठ जाएगी।‘‘ बीसवीं सदी के चिंतक रोम्यां रोलां ने लिखा है कि, अगर इस धरती पर कोई एक ऐसी जगह है, जहाँ सभ्यता के आरंभिक दिनों से ही मनुष्यों के सारे सपने आश्रय और पनाह पाते रहे हैं, तो वह जगह हिन्दुस्तान है।
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यहाँ ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले से ही विश्ववारा संस्कृति रही है। यहाँ जो भी आया हिन्दू समाज ने उसका स्वागत किया। सबके साथ रहने, मिलने, बात करने और संस्कृति का आनंद लेने का वातावरण वैदिक काल से ही शिखर पर था। इस्लामी ब्रितानी लोगों के भारत आने से संस्कृति पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस्लाम अनुयायियों से टकराव भी हुए। बाद में ब्रिटिश सत्ता द्वारा भारतीय संस्कृति पर हमले हुए। अंग्रेज भारत के लोगों का धर्मांतरण चाहते थे। उन्होंने भी भारतीय संस्कृति पर आधुनिकता के नाम पर तमाम वैचारिक हमले किए। गाँधी जी ने कड़ा प्रतिवाद किया और यूरोपीय सभ्यता को ‘चांडाल‘ कहा। इस सभ्यता को ही दुर्भाग्य से आधुनिक सभ्यता कहा जाता है। हमारी आधुनिक सभ्यता हमारी ही प्राचीन संस्कृति का आधुनिक रूप होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
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