भारत अद्भुत है। यहां भगवान भी विश्राम करने चले जाते हैं। कल 20 जुलाई अर्थात आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पद्मा एकादशी अर्थात् देवशयनी एकादशी है। मान्यता के अनुसार, देवशयनी एकादशी इसलिए है क्योंकि इस जगत के पालनहार भगवान विष्णु इस दिन से क्षीर सागर में शयन करने चले जाते हैं। भगवान चार महीने बाद कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागते हैं इसलिए इसे देवोत्थान या देवठान या देवठावन या हरिप्रबोधिनी एकादशी कहते हैं।
इस प्रकार देवशयनी एकादशी से चातुर्मास व्रत का प्रारंभ हो जाता है। क्योंकि जब भगवान ही विश्राम पर चले गए तो उनकी प्रकृति भी उन्हीं के साथ विश्राम-भाव में ही चली जाती हैं। स्वाभाविक रूप से संसार के जीवन में भी ठहराव आता है। जीव-जन्तु-जंगल-जगमंगल के सभी अपने साधनों समेत अपना अपना सुरक्षित ठौर-ठिकाना तलाशकर समय की प्रतीक्षा में ठहर जाते हैं क्योंकि सब जान जाते हैं कि प्रकृति जलमय हो रही है, प्रकृति के परमेश्वर भी इसी जल में योगनिद्रापूर्वक लीन हो रहे हैं।
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प्रकृति के इस रूप को भारतीय परंपरा ने जब देखा तो उसका मंतव्य उसी तरह समझ लिया जैसे कि मनुष्येतर सभी जीव समझते और बरतते हैं। कहीं रुककर, ठहरकर, समुचित राशन-साधन जुटाकर आत्मचिन्तन, महामंथन, गुरु-शिष्य मंडली का कथोपकथन आश्रमों, गुरुकुलों समेत तमाम ठिकानों में चार महीने तक निरंतर चलने की यह परंपरा वेदकाल से ही चली आ रही है, शिक्षण कार्य के लिए यह चतुर्मास बहुत ही प्रेरक और शुभ माना गया है। तो ग्राम-किसान-खेत-खलिहान में भी धान की रोपाई के बाद का समय उस अंकुरण की प्रतीक्षा में आनन्दपूर्वक बीतता है जबकि ग्रीष्म की तपिश कुछ मिटने लगती है, धरती की गर्मी थमने लगती है। चारों ओर मॉनसून की बरसात में ताल-तलैया-पोखर सब उलट जाते हैं, कूप-तड़ाग जल से लबालब भर उठते हैं। भूमि और बादलों का मिलन जीवन के सारे सूखे को मिटाता प्रतीत होता है,दिन और रात बादलों की छायी धुंध में मन के भीतर के किसी गहरे कोने में उत्पन्न राग गीत-संगीत के प्रति गहन आकर्षण पैदा करता है।
झमाझम बारिश में डूबे धान के खेतों और प्राकृतिक सुषमा से हरी भरी धरती की हरियाली को देखकर आखिर किसका मन झूम-झूम जाने को नहीं करता है। तनाव से मुक्ति का साधन है गीत और संगीत। रिमझिम संगीत से प्रकृति स्वयं को सारे ताप से मुक्त कर लेती है। इसी तरह खुद को सब वेदनाओं से मुक्तकर मुस्कराने, नाचने-गाने की लोक परंपरा ही है चौमासा जिसमें आध्यात्मिक चातुर्मास के भाव को लोक अपने रंग में ढालता है। भारत का लोक-समाज इस चौमासे को गीत-संगीत की धुनों से सजाता और मनाता आया है। हर प्रांत में इसका अपना सुर-ताल और संगीत है। इसकी अलग अलग छटा हजारों-लाखों ग्रामों में आज भी देखने को मिलती है।
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सावन के झूले इस संगीत को अद्बभुत गति देते हुए आसमान चूमते हैं, महिलाओं और बेटियों की रंगत ही बदल जाती है, सब प्रकृति के साथ उसी की लहर में झूमती हैं और सुमधुर गीत-संगीत हर स्त्री-पुरुष के भीतर के बदराए मन से खुदबखुद बाहर निकलकर बुदबुदाने लगता है, तन-मन-बाहर और भीतर सब मानो नाच उठता है। धरती का पोर-पोर घनघोर घटाओं की गर्जना सुनसुनकर रोमांच में डूबने लगता है तो कण-कण जल सैलाब से लहालोट हो जाती यह भूमि साक्षात क्षीर-सागर में बदलती दिखने लगती है, जिसके कण-कण में जगत के पालनहार अपनी लीला रचाते हुए गहन निद्रा में डूब जाते हैं। कहते हैं कि भगवान इस अवधि में दान-पुण्य आदि, कथा-कीर्तन, भजन-सुमिरन-सुमधुर गीत-संगीत आदि के द्वारा अपने चाहने वालों के ह्रदय में आनन्द भरते रहते हैं।
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लोक-संगीत से भरपूर चातुर्मास की इसी शास्त्रीय और लोक परंपरा पर केंद्रित दो दिवसीय ऑनलाइन सेमिनार का आयोजन भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा 27-28 जुलाई 2021 को होने जा रहा है जिसमें उत्तर और दक्षिण भारत के अनेक ख्यात विद्वान, कलाकार और लोक-संगीत के पुरोधा चौमासे की परंपरा को न सिर्फ चिन्तन और प्रवचन से बल्कि उसके गीत-संगीत-गायन से भी समृद्ध करेंगे। प्रोफेसर मालिनी अवस्थी जी के नेतृत्व में आयोजित इस कॉन्फ्रेंस से जुड़ने के लिए सभी विद्वानों, शोध छात्रों और परास्नातक विद्यार्थियों को निमंत्रण दे रहा हूं। आपको विस्तृत सूचना शीघ्र उपलब्ध करा दी जाएगी।
(लेखक भारत अध्ययन केंद्र काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अध्यक्ष हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)