रक्षा सूत्र बंधन सनातन संस्कृति में अत्यंत महत्वपूर्ण है। रक्षा सूत्र के साथ ही यह संकल्प का भी शक्ति प्रदाता है। रक्षासूत्र बंधन के साथ एक संकल्प अवश्य होता है। यह सूत्र तब तक बंधा होता है जब तक संकल्प की पूर्ति न हो जाय। इस बंधन के बड़े ही गूढ़ निहितार्थ हैं जिनके बारे में सामान्यजन को बहुत कम ज्ञात है। इसे आजकल हमलोग एक परम्परा के रूप में मानते चले जा रहे हैं जबकि यदि इसके गंभीर महत्व को जान लेना बेहद आवश्यक है।
इसमें सारा दोष उन तथाकथित इतिहासकारों का है जिन्होंने हमारी सनातन संस्कृति को समझे बिना ही हमारे पर्व त्योहारों को रूढ़ि बता दिया और अनाप शनाप लिख कर हमारी पीढ़ियों को पढ़ाते रहे। अब यह सोचने का विषय है कि जो राजपूतानियाँ मुगलो से बचने के लिए स्वयं का जौहर कर लिया करती थीं वे भला अपने आतताइयों को इसलिए राखी भेज सकती हैं कि वह आक्रांता उनकी रक्षा करेगा?
सोचिए, क्या यह संभव प्रतीत होता है? हमे पढ़ा दिया गया कि मेवाड़ की महारानी कर्मावती ने एक मुगल को राखी भेजा और उस मुगल ने उनकी रक्षा की। भला कोई आक्रांता किसी भारतीय सनातन भावना को मान सकता था क्या? लेकिन इसे हमारे इतिहासकारों ने लिखा भी और हमने पढ़ा भी। आज भी अपने बच्चों को वही पढ़ाये जा रहे हैं। यह वही मुगल है जिसके पिता ने अयोध्या में भगवान श्रीराम की जनभूमि पर कब्जा कर एक मस्जिद तामीर कर दी जिसके पूरा इतिहास गोस्वामी तुलसी दास जी तुलसी शतक में लिख चुके हैं। हमारे इतिहासकारों को गोस्वामी जी का लिखा नहीं दिख कभी और आज हम अपने आराध्य की जन्मभूमि वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
बहरहाल, यहां हम चर्चा रक्षाबंधन की कर रहे है। रक्षाबंधन सनातन संस्कृति का अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है। प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था। इसे ही आगे चलकर राखी जाने लगा। सनातन परंपरा में यज्ञ में जो यज्ञसूत्र बांधा जाता था उसे आगे चलकर रक्षासूत्र कहा जाने लगा। रक्षाबंधन की सामाजिक लोकप्रियता कब प्रारंभ हुई, यह कहना कठिन है। पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र है जिसके अनुसार भगवान विष्णु के वामनावतार ने राजा बलि को रक्षासूत्र बांधा था और उसके बाद ही उन्हें पाताल जाने का आदेश दिया था। आज भी रक्षासूत्र बांधते समय एक मंत्र बोला जाता है उसमें इसी घटना का जिक्र होता है।
परंपरागत मान्यता के अनुसार रक्षाबंधन का संबंध एक पौराणिक कथा से माना जाता है, जो कृष्ण व युधिष्ठिर के संवाद के रूप में भविष्योत्तर पुराण में वर्णित बताई जाती है। इसमें राक्षसों से इंद्रलोक को बचाने के लिए गुरु बृहस्पति ने इंद्राणी को एक उपाय बताया था जिसमें श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को इंद्राणी ने इंद्र को तिलक लगाकर रक्षासूत्र बांधा था जिससे इंद्र विजयी हुए। वर्तमानकाल में परिवार में किसी या सभी पूज्य और आदरणीय लोगों को रक्षासूत्र बाँधने की परंपरा भी है। वृक्षों की रक्षा के लिए वृक्षों को रक्षासूत्र तथा परिवार की रक्षा के लिए माँ को रक्षासूत्र बाँधने के दृष्टांत भी मिलते हैं। रक्षा सूत्र बंधन का मंत्र है-
‘येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:।
इस मंत्र की रचना कैसे हुई इससे जुड़ी कथा है कि, विष्णु भगवान ने वामन बनकर राजा बलि से दान में सब कुछ मांग लिया। राजा बलि को जब भगवान की चाल का ज्ञान हुआ तब उसने वामन भगवान से वरदान मांगा कि हे भगवान आप मेरे साथ पाताल में निवास करें। विष्णु भगवान राजा बलि के साथ पाताल चले गए। इससे माता लक्ष्मी दुःखी हो गई और राजा बलि को दिए वरदान के बंधन से भगवान को मुक्त करवाने के उपाय सोचने लगीं।
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माता लक्ष्मी वेष बदलकर राजा बलि के पास गयी और राजा बलि को अपना मुंह बोला भाई बना लिया। सावन पूर्णिमा के दिन बलि को देवी ने राखी बांधा। राजा बलि ने जब देवी से राखी बंधने के बदले उपहार मांगने को कहा तो देवी ने भगवान विष्णु को वरदान के बंधन से मुक्त करने का वचन मांग लिया। बलि ने भगवान को वरदान से मुक्त कर दिया और माता लक्ष्मी के साथ बैकुण्ठ लौट आए। रक्षा सूत्र के इसी महत्व के कारण परंपरागत तौर पर राखी का त्योहार सदियों से मनाया जा रहा है। राजा बलि को राखी बांधकर लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को बंधन से मुक्त करावाया। इसी घटना को रक्षाबंधन के मंत्र के रूप में रचा गया।
आचार्यों की व्याख्या थोड़ी भिन्न है। कथा इतर आचार्य परंपरा के अनुसार इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।
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वस्तुतः समाज के सभी वर्गों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से तत्कालीन आचार्य परंपरा ने इस श्रावणी सूत्र बंधन को प्रारंभ किया था। हमारे समाज मे जिस बलि दान शब्द को लेकर बहुत गंभीर हुआ जाता है वह बलिदान शब्द राजा बलि द्वारा दिये गए दान से ही जुड़ा है। ऐसा दान जैसा राजा बलि ने दिया। भगवान बामन ने सिर्फ तीन डग धरती मांगा। राजा बलि ने देने का संकल्प लिया। लेकिन जब भगवान बामन ने दो डग पूरे कर तीसरा डग बढ़ाया तो धरती कम पड़ गयी। तब बलि ने स्वयं को लगा दिया और अपने संकल्प को पूरा किया। इसीलिए रक्षा सूत्र के साथ कोई न कोई संकल्प अवश्य होना चाहिए। ययह रक्षा सूत्र बंधन कब केवल भाई बहन के बीच का प्रतीक बना दिया गया और फिर इसमें बाजार ने अपनी कला दिखाई यह शोध का विषय हो सकता है।
शास्त्रों में कहा गया है- इस दिन अपरान्ह में रक्षासूत्र का पूजन करे और उसके उपरांत रक्षाबंधन का विधान है। यह रक्षाबंधन राजा को पुरोहित द्वारा यजमान के ब्राह्मण द्वारा, भाई के बहिन द्वारा और पति के पत्नी द्वारा दाहिनी कलाई पर किया जाता है। संस्कृत की उक्ति के अनुसार
जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत। स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।
अर्थात् इस प्रकार विधिपूर्वक जिसके रक्षाबंधन किया जाता है वह संपूर्ण दोषों से दूर रहकर संपूर्ण वर्ष सुखी रहता है। रक्षाबंधन में मूलत: दो भावनाएं काम करती रही हैं। प्रथम जिस व्यक्ति के रक्षाबंधन किया जाता है उसकी कल्याण कामना और दूसरे रक्षाबंधन करने वाले के प्रति स्नेह भावना। इस प्रकार रक्षाबंधन वास्तव में स्नेह, शांति और रक्षा का बंधन है। इसमें सबके सुख और कल्याण की भावना निहित है। सूत्र का अर्थ धागा भी होता है और सिद्धांत या मंत्र भी। पुराणों में देवताओं या ऋषियों द्वारा जिस रक्षासूत्र बांधने की बात की गई हैं वह धागे की बजाय कोई मंत्र या गुप्त सूत्र भी हो सकता है। धागा केवल उसका प्रतीक है।रक्षासूत्र बाँधते समय एक श्लोक और पढ़ा जाता है जो इस प्रकार है-
ॐ यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यं,
शतानीकाय सुमनस्यमाना:।
तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।
भारत पर एक हजार वर्षों से अधिक की बाहरी शासन शक्तियों ने भारतीय परंपराओं में कितना बदलाव किया अथवा हम स्वयं अपनी महान परंपराओं से कितने छूटते गए यह एक गंभीर पहलू है जिस पर अब कार्य होना जरूरी है। अपने पर्व त्योहारों की महान परंपरा में निहित वैज्ञानिकता की खोज भी इस समय की बड़ी आवश्यकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)