Prerak Prasang: स्वर्ग- यह नाम है सुख विशेष या उस विशेष सुख को प्राप्त करने की सामग्री का। नरक- यह नाम है दुःख विशेष या उस दुःख को प्राप्त करने वाली सामग्री का। यह किस प्रकार होता है- इसके लिए हमें समझना होगा कि स्वर्ग या नरक हमें प्राप्त कैसे होता है।

कर्मों के द्वारा हम स्वर्ग या नरक नामक सुख या दुःख विशेष को भोगते हैं। क्योंकि प्रत्येक जीव कर्म करने को स्वतंत्र और उन कर्मों के फल भोगने को परतंत्र है। अब यदि जीव उन कर्मों के फल न भोगे तो पुनर्जन्म सिद्धांत नहीं हो सकता, क्योंकि बिना शरीर के आत्मा उन कर्मों के फल नहीं भोग सकती। तो ये भोग किस प्रकार होता है। भारतीय दर्शन के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं-

1- संचित कर्म- वर्तमान तक किया गया कर्म संचित कर्म कहलाता है।

2- प्रारब्ध कर्म- संचित कर्म का जो भाग हम भोगते हैं, वह प्रारब्ध कहलाता है।

3- क्रियमाण कर्म- वर्तमान में जो कर्म हो रहा है, वह क्रियमाण है, उसी तरह से शरीर भी बताये गये हैं।

स्थूल शरीर

जन्म के बाद जो शरीर सामने दिखाई देता है, वह स्थूल शरीर होता है। इसी को स्थूल शरीर का नाम दिया जाता है। स्थूल शरीर में 10 इन्द्रियाँ होती हैं। जो आत्मा की चेतनता और सूक्ष्म शरीर की मन- बुद्धि आदि इन्द्रियों से संसर्ग कर कार्य रूप यानि चेतन हो जाती हैं। इसी के द्वारा संसारी कार्य किये जाते हैं। इसी शरीर को संसारी सुखो और दुखों से गुजरना पड़ता है। और जो भी सुख-दुख होते हैं, उसे भोगने के लिए ईश्वरीय नियमानुसार जीव परतंत्र है और इस शरीर से ही उन कर्म फलों का भोग करता फंसता जाता है।

सूक्षम शरीर

मोक्ष में भौतिक शरीर व इंद्रियों के गोलक जीवात्मा के साथ नहीं रहते, किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने की संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गंध के लिए घ्राण, संकल्प विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिए बुद्धि, स्मरण करने के लिए चित्त और अहंकार के अर्थ अहंकार रूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में लय हो जाता है और संकल्पमात्र शरीर होता है। जैसे शरीर के आधार रहकर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य करता है, वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनंद पाता है। यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचष्टते तामाहुः परमां गतिम्।।

जब शुद्ध मन युक्त पांच ज्ञानेन्द्रियां जीव के साथ रहती हैं और बुद्धि का निश्चय स्थिर होता है। उसको परमगति अर्थात मोक्ष कहते हैं। जो कर्म किये उनके फल भोग करना, शरीर को आत्मा के संयोग से, ईश्वरीय नियमानुसार उन कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। वह चाहे सुख हो या दुःख, अब जो कर्मों के आधार पर शरीर भोगता है- वह ही स्वर्ग- सुख विशेष और नरक- दुःख विशेष।

यदि स्वर्ग या नरक किसी अन्य लोक को कहो तो आत्मा कैसे भोग सकती, क्योंकि फल भोग करने को शरीर चाहिए। अब अगर कहो सूक्ष्म शरीर भोगता है, तो भी सूक्ष्म शरीर तो इन्द्रियाँ हैं, वह कैसे भोगे- फल भोग करने को भौतिक और स्थूल शरीर चाहिए। इससे ज्ञात होता है कि स्वर्ग और नरक की जो बात हो रही है वह कर्मों के फल ही भोगने हैं। अन्य किसी लोक में नहीं वरन यहीं कर्मों के आधार पर। शरीर को ही भोगने हैं, और जो सूक्ष्म शरीर होता है वो फल का भोग बिना स्थूल शरीर के नहीं कर सकता। क्योंकि- नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

यह आत्मा अमर है। इसे न ही शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गला ही सकता है और न ही हवा उड़ा सकती है। अब कोई महाज्ञानी बताये की आत्मा को किसी अन्य लोक या स्वर्ग और नरक में कैसे पापो का फल दोगे। जबकि आत्मा का सिद्धांत है- शरीर से मरने के बाद आत्मा यम (वायु, ब्रह्माण्ड) में जाती है और अन्य शरीर धारण करती है। यदि कहो की स्वर्ग या नरक में जाके पाप के फल भोग करेगी। तो फिर पुनर्जन्म के सिद्धांत को क्या अपनी जेब में रख लोगे?

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अगर कहो कि सूक्ष्म शरीर फल भल भोग करेगा। तो भी नहीं हो सकता क्योंकि फल भोग करने को स्थूल शरीर चाहिए। और अगर मान भी लूं एक बार कि चलो सूक्ष्म शरीर ने स्वर्ग या नरक में फल भोग कर लिया तो फिर उन्ही फलों का भोग स्थूल शरीर में दुबारा करवाओगे क्या, क्योंकि पुनर्जन्म सिद्धांत है- आत्मा को शरीर धारण करना ही होगा। फिर वो कौन से कर्मों के फल भोगेगी ये तो बताओ?

अगर कहो की मिश्रित फल की व्यवस्था वाले ही पुनर्जन्म लेते हैं तो मेरे मित्र फिर तो स्वर्ग- नरक बनाना ही व्यर्थ हुआ। क्योंकि आप चाहे कितनी ही कोशिश कर लो, बाल्यावस्था में ऐसे कर्म अवश्य होंगे की वो पाप की सीमा में ही गिने जायेंगे। तो भी हर कोई मिश्रित फल वाला ही होगा, जिससे स्वर्ग- नरक जाना असंभव है। फिर उसकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। इससे मिश्रित फल की व्यवस्था जो कुछ लोग बताते हैं वो अज्ञान की बात हुई।

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