हम बहुत आम जगहों से आए थे
बहुत आम जगहों पर रहे
बहुत आम जगहों पर पढ़े
और बेहद आम जगहों पर खाया
जब अमीर लोग बड़े नोट निकाला करते थे
हमारी जेब में कुछ सिक्के खनकते थे
हम सब एक जैसे नहीं थे
फिर भी हम शामिल थे रेस में
एक ऐसे घोड़े की तरह
जिसकी टाँगों पर
पूरे खानदान की उम्मीदों का बोझ टिका था
और वह बोझ इतना था कि
थोड़ा और बढ़ते ही
हम चटक सकते थे
टूट सकते थे, बिखर सकते थे।
हमारे पास खोने को नींदें थीं
और बेचने को सपने
इसके अलावा कुछ और नहीं
जिसे दाव पर लगा सकते।
हमने पढ़ीं रात भर किताबें
और लड़े सपनों के लिए
कितना कुछ और था जो हम कर सकते थे
पर मारे गए दूसरों की उम्मीदों पर ख़रा उतरते हुए।
– अंकुश कुमार
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