मैंने देखा है फिल्मों में
वो लड़के जो बना करते हैं
एक टूटी सी लड़की का सहारा
कन्धा कहलाये जाते हैं।
मारते हैं फटीक वो
अपनी ही मोटरसाइकिलों पे
बैठाकर पीछे एक लहराती
और कुम्हलाई फूलकुमारी को।
पोंछा करते हैं आंसू वो उसके
अपने उस प्यारे रुमाल से
जिसे उनकी माँ करती है
इस्त्री अपने प्रेम और लाड़ से।
चख लेते हैं तीखे गोलगप्पे भी
मीठी मुस्कान में पड़कर किसी की
और सूंघते फिरते हैं फूल मनपसंद
अपनी प्यारी फूलकुमारी के।
दुनिया की भागदौड़ और पिता
के तानों के बीच वक़्त निकालकर
दे देते हैं वक़्त एक नए
एक अनजान से रिश्ते को।
और इतना सबकुछ, कर कर, सहकर
भी कहलाये जाते कंधे ही हैं
और एक दिन अचानक
टूट जाते जाते हैं हकीकत के हथौड़े से
जब सामने आते हैं उनकी फूलकुमारी के माली
हाथ में फूल गुलाब का लिए।
– प्रियांक्षी
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