नाना के घर से जब मम्मी,
पापा के संग आई थीं!
और नहीं कुछ याद किसी को,
पर ये पलंग भी लाई थी।

छोटे बड़े मिलाकर उनके,
घर में दस दस देवर थे,
ननदें पलंग पे पसरी रहती,
उनके भी अपने तेवर थे।

मम्मी पहले बनी बहुरिया,
बड़की दुलहिन फिर नाम मिला!
चाचाओं को भी थक जाने पर,
पलंग पे ही आराम मिला।

नहीं रहा एक पल भी खाली,
पलंग हमारी मम्मी का!
दीदी आईं फिर हम आए,
आया मेरा भाई मुसम्ही सा।

भरा पूरा परिवार देखकर,
खुशी अनोखी पाई थीं!
पोता-पोती, नाती-नतिनी,
बहुएं भी चुन-चुन लाई थीं!

सबने इस पलंग पे शयन किए,
मां की गोदी का दुलार मिला!
फिर कुछ अवसरवादी लोगों से,
उन्हें तनिक ना प्यार मिला।

कुछ तीती-मीठी अनुभव बांधे,
अपने पल्लू की गांठों में!
वो पलंग छोड़ के चली गईं,
जिनपे सोते हम रातों में।

जो पलंग दिख रहा फोटू में,
इस पर हर नींद सुनहरी थी!
इसलिए प्यार से नाम मिला,
मेरी “मम्मी की मसहरी” थी।

जब भी हम इस पर सोते हैं,
लगती ये मां की गोदी सी!
सारे सुख हमको मिल जाते हैं,
लगे गम “गम्भीर” भी छोटी सी।

– सत्य प्रकाश त्रिपाठी “गंभीर”

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