मौजूदा समय में मीडिया का दायरा काफी व्यापक हुआ है लेकिन इस बीच खबरों की विश्वसनीयता काफी घटी है। बिना विश्वसनीयता के बेहतरी की उम्मीद करना बेमानी होगी। मीडिया शुरू से ही राजनीतिक खेमे में बटी हुई थी, लेकिन वर्तमान समय में मीडिया का जो चेहरा समाने आ रहा है वह बेहद डरावना है। डरावना इसलिए है कि वर्तमान मीडिया दो धड़े में बंट गया है, और दोनों धड़ा खुद को सही साबित में लगा है। जो यथार्त से काफी परे है। खुद को सही साबित करने के चक्कर में मीडिया की निष्पक्षता खत्म सी हो गई है। हमारे सामने ऐसे ढेरों उदाहरण है, जिसमें मीडिया का रवैया गैर जिम्मेदाराना रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि अगर आप निष्पक्ष नहीं रहोगे तो आप पर यकीन कौन करेगा। वही हो भी रहा है। मीडिया पर यकीन करने की जगह लोग इसके दुरुपयोग में लगे हुए हैं। सोशल मीडिया के आने के बाद मीडिया का दायरा काफी व्यापक हुआ, मगर मीडिया भी सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर पत्रकारिता करने लगा। इस तरह की रिपोर्टिंग की वजह से सच की जगह भ्रामक खबरों को ज्यादा तरजीह मिल रही है।
जेएनयू की घटना से लेकर हाथरस कांड तक मीडिया का जो रोल रहा वह वास्तव में बेहद शर्मनाक माना जाएगा। जेएनयू की घटना में भी मीडिया का एक धड़ा देश विरोधी नारे लगाने वालों को निर्दोष बताने में लगा रहा तो दूसरा धड़ा उन्हें देशद्रोही साबित करने लगा। जबकि यह तय करना पुलिस व कानून का काम था। लेकिन मीडिया ने अपना दायरा भूल कर खुद को पुलिस व न्यायाधीश की भुमिका में आने का कुत्सित प्रयास किया, जो इस पेशे के लिए काफी घातक है। मौजूदा परिवेश में खबरों से खोजी पत्रकारिता विलुप्त सी हो गई है। इसी तरह लद्दाख क्षेत्र में भारतीय और चीनी सेना के बीच टकराव की स्थिति के बीच भी मीडिया की गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग सामने आई। मीडिया का एक धड़ा यह बताने में लगा रहा कि यहां कुछ भी नहीं हुआ और दूसरे धड़े की माने तो चीन ने भारतीय परिक्षेत्र में शामिल होकर जमीन अधिग्रहित कर लिया। हम सिर्फ उतना ही बता सके, जितना सोशल मीडिया पर हमें उपलब्ध हो सका।
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अधिकत्तर मीडिया संस्थानों की रिपोर्टिंग ट्विटर, फेसबुक और वाट्सएप पर आ रहे मैसेज पर केंद्रित हो गया है। वह यह भूल रहे हैं कि वह सोशल मीडिया नहीं बल्कि मीडिया हैं। उनका काम खबरों की सत्यता को जांचना और परखना है। जल्दबाजी में हम खबरें तो जल्दी दे देते हैं। लेकिन अधिकत्तर खबरें सच नहीं दे पाते। हैरत की बात यह भी है कि बाद में पता होने पर कि हमने गलत खबर चला दी है, इसका भी हमें कोई मलाल भी नहीं होता। ऐसे में सोचने वाली बात है कि आखिर ऐसा हम क्यों और किस लिए कर रहे हैं? क्या हम अपने पेशे के प्रति वफादार हैं। अगर नहीं हैं तो क्यों नहीं है? इन ढेर सारे सवालों के जवाब पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रहे सभी साथियों को तलाशना होगा। वरना जल्द खबरें प्रस्तुत करने की बात पर हम यूं ही इतराते रहेंगे, लेकिन हम पर विश्वास करने वाला कोई न होगा। हम मजबूत तब तक है जब तक लोगों का विश्वास हमारे साथ है। क्षेत्र कोई भी हो अगर एकबार विश्वास टूट गया तो फिर वह हासिल कर पाना संभव नहीं है।
पत्रकारिता में भी हमने इतने विच्छेद कर डाले हैं कि हम खुद ही नहीं समझ पाते कि हम कौन वाले है? जैसे बड़ा पत्रकार, बड़ा अखबार, बड़ा चैनल, बड़ा पोर्टल आदि इत्यादि शब्द हमने खुद ही गढ़े हैं। लेकिन सवाल यह है कि सच लिख पाने, दिखा पाने व छाप पाने में जिसमें कूबत न हो वह बड़ा कैसे हो सकता है? हम लोग अक्सर देखते आ रहे है जिन्हें लोग बड़ा समझते हैं वही अक्सर खबरों को लेकर समझौता भी करते हैं। ऐसे में वह किस हिसाब से बड़े हो गए यह बात समझ से परे हो जाती है। पत्रकारिता के कुछ नामी चेहरे ऐसे भी हैं जो अपने सिवाय दूसरे को पत्रकार भी नहीं समझते। उन्हें पता नहीं क्यूं यह लगता कि पत्रकारिता उन्हीं के बदौलत है। तभी तो हम लोगों के बीच आज गोदी मीडिया और मोदी मीडिया जैसे शब्द तैर रहे हैं।
पत्रकारिता के वे स्तंभ जिन्होंने ऐसे नाम गढ़े है, उनसे भी सवाल है कि क्या वह निष्पक्ष हैं। वो आज जहां पहुंचे हैं क्या निष्पक्षता से पहुंचे हैं। अगर नहीं तो दूसरे पर ऊंगली उठाने का हक उन्हें कैसे मिल जाता है। फिलहाल ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब व हल इस क्षेत्र से जुड़़े लोगों को खुद ही तलाशने हैं। यह सच है कि आज हम पहले की अपेक्षा काफी सशक्त हुए हैं, लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से विमुख होने के चलते हम काफी मुश्किल दौर में भी आ गए हैं।
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