किसान आन्दोलन- नीति या राजनीति

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स्मृति श्रीवास्तव

मैं हूँ एक किसान,

बंजर, रेतीली धरती से भी सोना उपजाऊँ,
ऐसी मेरी फ़ितरत, यही हमारी पहचान।

मैं हूँ एक किसान।।

बचपन से पढ़ा, सुना कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि हमारे देश के अर्थव्यवस्था की आधारभूत इकाई है, इसके बिना देश का आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। देश की भौगोलिक स्थिति कृषि के लिए अनुकूल है, जिसके कारण हर मौसम के अनुसार फ़सल उगाई जा सकती है। लेकिन हमारे देश की विडम्बना ये है कि जिनके अथक प्रयासों से हमारी धरती सोना उगलती है और देश का आर्थिक विकास होता है उनके स्वयं की आर्थिक स्थिति शोचनीय है। आज़ादी के बाद कितनी ही सरकारें आईं, कितने ही वादे किए गए, कितने ही कानून बने, समय-समय पर बदलाव के लिए नयी नीतियाँ भी बनाई गई लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। आज भी हमारे किसान गरीबी, भुखमरी और कर्ज़ जैसे दानवों के गिरफ्त से आज़ाद नहीं हो सके हैं।

वैसे तो किसानों की समस्याओं पर चर्चा हमेशा से ही होती रहती है, खास तौर पर चुनाव के समय में तो हर दल अपने हित को देखते हुए उनसे सम्बन्धित मुद्दे उठाते रहते हैं, किन्तु आज के संदर्भ में किसानों पर चर्चा का प्रमुख कारण “किसान आन्दोलन” है। मौजूदा सरकार ने किसानों के लिए एक बिल पारित किया है जिसके विरोध में कुछ कृषक दलों ने धरना प्रदर्शन कर उसे आन्दोलन का रूप दे दिया है। सरकार द्वारा पारित बिल के विषय में सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए यह तर्क दिया है कि ये बिल किसानों के लिए कल्याणकारी है, उनके द्वारा बिल में किसानों के हितार्थ शामिल कुछ बिन्दु निम्नवत हैं :-

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर सरकार की खरीददारी जारी रहेगी।
  • कृषि मंडी बंद नहीं होगी, किन्तु किसानों को खुले बाज़ार में मनचाही कीमत पर फसल बेचने का अधिकार होगा।
  • कृषकों की सुविधा के लिए उत्पाद बेचने के लिए Agriculture Produce Market committee (APMC) भी चलता रहेगा।
  • बिचौलियों का हस्तक्षेप समाप्त हो जाएगा।

किन्तु आन्दोलनकारी किसानों के भी विरोध में अपने तर्क हैं, उन्होंने बिल के विरोध में निम्नवत बिन्दुओं पर अपने पक्ष को रखा है :-

  • आढ़तियों व मंडी करोबारियों को डर है कि बिना शुल्क कारोबार के फलस्वरूप कोई मंडी नहीं आना चाहेगा।
  • किसानों को डर है कि बड़े पूँजीपतियों की दया पर वो निर्भर हो जाएंगे।
  • बिना MSP वाले उत्पादों को मजबूरन कम दामों पर बेचना पड़ेगा।
  • मंडियां धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगीं।

इन बिन्दुओं को देखते हुए सह परिणाम निकलता है कि अपनी शंका के समाधान और किसानों के कल्याण हेतु दोनों पक्षों को इस विषय पर आपसी विचार विमर्श व सहमति के साथ कोई निर्णय लेना होगा। क्योंकि सरकार द्वारा पारित बिल बहुत हद तक किसानों के हित को ध्यान में रखकर बनाया गया है, जहाँ तक मेरा विचार है इस बिल से बिचौलियों की सत्ता समाप्त होगी और किसानों को अपनी उपज अपने मुताबिक खुले बाज़ार में मोल भाव करके उचित मूल्य पर बेचने से सीधा लाभ मिलेगा, और बाहर निकल कर आढ़तियों से सीधा सम्पर्क होने पर नई विपणन नीतियों और तकनीक की जानकारी भी मिलेगी।

लेकिन अगर इसके नकारात्मक पक्ष को देखा जाए तो किसानों को ये निर्णय लेने में मुश्किल होगी कि उत्पाद का सही मूल्य क्या होना चाहिए। भारतीय किसान शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं ऐसे में बिना किसी सहयोग के बाज़ार की नई-नई विपणन नीतियों, आधुनिक व्यापार नियमों व मोल भाव में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। साथ ही जो किसान आर्थिक रूप से बहुत पिछड़े हुए हैं और  जीवन यापन करना मुश्किल है वे अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने में इतने व्यस्त रहते हैं कि बाज़ार जा कर उपज की मोल भाव और दाम तय करने के लिए खरीददारों के पास घूमना एक कठिन काम होगा।

अब अगर आन्दोलन की बात करें तो, आन्दोलन करके सड़कों को जाम करना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। यह शुरू तो किसानों के हक की आवाज़ उठाने के लिए हुआ था लेकिन सभी राजनैतिक पार्टियों ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए अपने अपने सरकार विरोधी एजेंडों को साधने के लिए अपनी खिचडी़ पकानी शुरू कर दी है। इन राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता में मुख्य मुद्दा दरकिनार हो गया है और किसान बेचारे हमेशा की तरह सभी पार्टियों के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रह गए हैं। जिसका सीधा असर किसानों के हित में होने वाले फैसलों पर पड़ेगा।

“राजनीति के ठेकेदारों, कभी तो देश हित काम करो,
जन हित को आगे तुम रखा, लोकतंत्र का सम्मान करो। “

(लेखिका ब्लॉगर एवं फ्रीलांस राइटर हैं)

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