कश्मीर से कन्याकुमारी तक एजेंडा एक ही दिख रहा है। तरीका और तैयारी भी एक ही जैसी। उपद्रव का प्रकार भी। वही भीड़। वही पत्थरबाजी। सुरक्षा बालों पर निशाना। दिन ऐसा चुना जाता है जिस दिन सम्बंधित स्थान पर किसी राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय अतिविशिष्ट का आगमन हो ताकि जनता और सुरक्षा एजेंसियां उसमें ही व्यस्त हों। आखिर यह किसकी योजना है और किसके इशारे पर यह सब हो रहा है? क्या यही गंगाजमुनी तहजीब है? देश के बुद्धिजीवी आख़िर इस एजेंडे पर क्यों नहीं बोल रहे? क्या देश की सुरक्षा एजेंसियों को कोई रोकता है जो ऐसी गतिविधियां बढ़ती ही जा रही?
पहले की घटनाओं में पीएफआई जैसे संगठन का नाम आया था। इस बार भी यही नाम आ रहा है। ऐसा ही इन्होंने दिल्ली में किया जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत के दौरे पर थे। ऐसा ही इन्होंने कल किया जब भारत के राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री दोनो ही कानपुर में थे। लखनऊ में देश दुनिया के बड़े उद्योगपति और अतिविशिष्ट लोग उत्तर प्रदेश में आर्थिक निवेश के संकल्प के साथ उपस्थित थे। ठीक वही तकनीक और वही तरीका अपनाया गया। अब इस बात में रत्ती भर संदेह नहीं कि नोआखाली दुहराने के लिए कुछ शरारती लोग बेताब हैं। लेकिन ये लोग हैं कौन? कश्मीर में इनकी वर्तमान सक्रियता साफ साफ दिख रही है। केरल में इनकी ऐसी गतिविधि को सभी ने हाल में ही देखा है। अब फिर कुछ उलूमो से वही आवाज निकाली जा रही है जैसी आवाज मुहम्मद अली जिन्ना ने 1946 में निकाली थी। क्या इसको रोकने में भारत या प्रदेशों की सरकारें अक्षम हैं?
यह विडंबना है कि अधिक से अधिक पढ़ा लिखा कोई समूह इनकी नापाक हरकतों की निंदा तक नहीं करता। अंतर सिर्फ इतना है कि इनको अभी भी यह आभास नहीं हो पाया है कि यह 1946 या 1990 का भारत नहीं है। प्रचलित मीडिया और बार बार कानून की दुहाई देने वाले लोग भी ऐसी घटनाओं में लिप्त लोगों के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाते। यह प्रदेश और देश सभी का है। सभी का सहयोग ही देश और प्रदेश को विकास और शांति के मार्ग पर ले जाएगा। सोचना तो सभी को पड़ेगा। इस सोच में किसी धर्म, पंथ या मजहब से ऊपर राष्ट्र और प्रदेश सर्वोपरि होना चाहिए।
ऐसे सभी मामलों में सबसे बड़ा प्रश्न यह खड़ा होता है कि आखिर सुरक्षा बलों या अवैध गतिविधियों, निर्माणों और कार्यों के विरुद्ध कोई ठोस कार्रवाई क्यों नही की जाती जिससे कि ऐसी समाज और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को रोका जा सके? यह प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कुछ ठोस करना बहुत जरूरी है। इसके लिए सबसे बड़ी कार्रवाई यह होनी चाहिए कि सबसे पहले बस्तियों में निर्माण की वैधता की जांच ठीक से कराई जाय। सम्बंधित नगरीय प्रशासन को अधिक बल प्रदान कर यह जांच कराई जाय ताकि सभी अवैध निर्माणों की सूची तैयार कर सम्बंधित लोगों को नोटिस जारी की जाय। इन अवैध निर्माणों के लिए मुकदमे दर्ज किए जाए और सभी अवैध निर्माण ध्वस्त किये जाय। क्योकि जांच के बाद यह स्पष्ट हो जाएगा कि इन निर्माणों के लिए न तो कोई नक्शा पास है और न ही कोई वैधानिक कार्रवाई की गई है। आखिर यह सब करने से एजेंसियों को किसी ने रोका तो नहीं है न?
भीड़ और पत्थर इनके सबसे बड़े हथियारों की आड़ में देश और समाज को अस्थिर करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई क्यो नही की जा रही? देश और समाज कानून और संविधान से चलता है। इसके लिए सरकार और शासन का बहुत बड़ा तंत्र है। समाज मे विद्वेष फैलाने और अस्थिर करने वाले तत्व अभी तक इसलिए यह सब करते आ रहे है क्योकि इस को लेकर अभी तक सरकारों ने केवल ढुलमुल रवैया अपनाया है। सब कुछ जानते हुए भी वोट बैंक की राजनीति के कारण इनको संरक्षित किया गया है। संरक्षण के इस पारंपरिक गठजोड़ को तोड़ना अब राष्ट्र हित के लिए आवश्यक है। इनके राजनीतिक, आपराधिक और मजहबी शिक्षा गुरुओं को ठीक से समझाना भी जरूरी है। इनकी अवैध गतिविधियों और कार्यों के खिलाफ कानून का पूरा उपयोग क्यों नही किया जा रहा? कार्रवाई ऐसी पुख्ता क्यों नहीं की जा रही कि न्यायालयों से भी कोई राहत न मिल सके। क्योंकि जब कानून के माध्यम से कार्रवाई होगी तो न्यायालय के पास कोई विकल्प भी नहीं होगा। इस आपराधिक अवैधानिक गतिविधि को नियंत्रित करने और अवैध गतिविधियों को रोकने में कानूनी कार्रवाई और त्वरित एफआईआर बहुत जरूरी है। लेकिन ऐसा अभी तक होता हुआ नहीं दिख रहा। जब कोई घटना होती है तो कुछ दिनों तक कुछ तेजी दिखती है लेकिन बाद में सब ठंडा हो जाता है।
कानपुर में क्यों हुआ
ऐसा कहा जा रहा है कि पैगंबर मोहम्मद साहब पर भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा की कथित टिप्पणी को लेकर मुस्लिम समुदाय में सुलग रहा आक्रोश जुमे की नमाज के बाद सड़क पर आ गया। योजना बनाकर यतीमखाना, नई सड़क से परेड तक जबरन दुकानें व बाजार बंद कराने के विरोध पर तोड़फोड़, बमबाजी, फायरिंग व पथराव किया। हिंदुओं के विरोध पर आधा दर्जन से ज्यादा वाहन तोड़ डाले। पथराव में दारोगा कैलाश दुबे समेत सात लोगों को चोटें आईं। पुलिस आयुक्त विजय सिंह मीना के नेतृत्व में पुलिस फोर्स ने लाठी पटककर उपद्रवियों को खदेड़ा। करीब चार घंटे तक पुलिस और उपद्रवियों के बीच गुरिल्ला युद्ध जैसे हालात रहे। गलियों व छतों से पथराव होता रहा। एडीजी ला एंड आर्डर प्रशांत कुमार का कहना है कि बेकनगंज थानाक्षेत्र के नई सड़क में कुछ लोगों ने दुकानें बंद कराने का प्रयास किया, जिसका दूसरे पक्ष ने विरोध किया। इसको लेकर जरूरी बल प्रयोग कर माहौल शांत कराया गया। अतिरिक्त पुलिस बल तैनात करने के साथ 18 लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं। आरोपितों के खिलाफ गैंगस्टर एक्ट के तहत कार्रवाई कर संपत्ति भी जब्त की जाएगी।
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अब यह समझने की बात है कि एक पैगम्बर पर यदि कोई टिप्पणी करने से यह समुदाय दंगे पर उतारू हो जाता है, लेकिन हिन्दू देवी देवताओं पर टिप्पणी और इनकी अनेक कथित मस्जिदों में उनका अपमान इन्हें इनके लिए गर्व लगता है। यानी समाज में केवल इनका सम्मान होता रहे और ये बहुसंख्यक समाज को निरंतर अपमानित करते रहें। राजनीति, अपराध और मजहबी गठजोड़ का वोट बैंक बनकर ये सब कुछ अवैध करते रहे, लेकिन सरकार या किसी बहुसंख्यक को इन पर कोई टिप्पणी नहीं बर्दाश्त है। ऐसे में इस समुदाय को ठीक से संस्कारित करने का समय आ गया है। यह कार्य उस समुदाय के अग्रणी और प्रभावी लोगों को जरूर करना चाहिए। गंगा जमुनी सभ्यता केवल एक पक्षीय समझौते से संभव नहीं हो सकती। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि एक मौलाना एलान कर रहा है कि जिसको हमसे दिक्कत है वह बाहर निकल जाए।
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मौलाना किसको बाहर निकालना चाह रहा है। सभी भारतीयों को? यह एलान सामान्य और अनदेखी करने वाला कार्य नहीं है। ऐसा ही एलान तो कश्मीर में भी 1990 में किया गया था। मस्जिदों से यही एलान हो रहा था। आज भी कश्मीर में इनके आतंकी हिंदुओं को लक्ष्य कर हत्याएं कर रहे हैं। कल कानपुर की घटना भी इनका एक प्रयोग ही थी। दिल्ली में ये लगातार प्रयोग कर रहे हैं। शाहीन बाग से लेकर फरवरी, 2020 की सभी घटनाओं के तरीके एक जैसे ही हैं। अब कार्रवाई जरूरी है। देश में संविधान, कानून और अनेक एजेंसियां हैं जिनको सक्रिय होकर ऐसी समाज, राष्ट्र और लोक विरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगानी चाहिए। अब सभी से यह उम्मीद बनती है कि गलत को गलत और सही को सही कहने का साहस जुटाएं। देश सभी का है और इसको सक्षम और शांतिपूर्ण वातावरण में विकसित करने की जिम्मेदारी सभी की है। समय हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई से ऊपर उठ कर सोचने का है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)